पहाड़ से नारंगी गायब, माल्टा को नहीं मिल रहा दाम।
क्या फिर लौटेंगे नारंगी के वो सुनहरे दिन?
रुद्रप्रयाग/पौड़ी। उत्तराखंड के पहाड़ों की पहचान रहे रसीले और औषधीय गुणों से भरपूर 'नारंगी' (पहाड़ी संतरा) आज लुप्त होने की कगार पर हैं। कभी रुद्रप्रयाग और आसपास के ऊंचाई वाले क्षेत्रों में हर परिवार के पास औसतन दो नारंगी के पेड़ हुआ करते थे, लेकिन आज स्थितियां बदल चुकी हैं। पलायन, जंगली जानवरों का आतंक और सरकारी तंत्र की उदासीनता ने पहाड़ की इस अनमोल विरासत को बंजर खेतों में तब्दील कर दिया है।
विदेशी 'किन्नू' के आगे फीकी पड़ी स्वदेशी नारंगी
बाजार में आज बाहरी राज्यों से आने वाले 'किन्नू' का बोलबाला है, जो 80 से 100 रुपये प्रति किलो तक बिकता है। जबकि विशेषज्ञों का मानना है कि पहाड़ की स्थानीय नारंगी, किन्नू से कहीं अधिक रेशेदार, रसीली और विटामिन-सी से युक्त होती है। एंटीसेप्टिक और एंटी-ऑक्सीडेंट गुणों के कारण यह शरीर को डिटॉक्स करने और इम्यूनिटी बढ़ाने में रामबाण है। विडंबना यह है कि गुणवत्ता में श्रेष्ठ होने के बावजूद उचित देखरेख के अभाव में इसके बाग खत्म हो रहे हैं।
विभाग की लापरवाही: 'नारंगी' के नाम पर बांट दिया 'माल्टा'
स्थानीय बागवानों का आरोप है कि उद्यान विभाग की उदासीनता के कारण पुराने बागों का जीर्णोद्धार नहीं हो सका। चौंकाने वाली बात यह है कि कई सरकारी योजनाओं में संतरे (नारंगी) की पौध के नाम पर घटिया स्तर की माल्टा पौध बांट दी गई। इसका परिणाम यह हुआ कि आज पहाड़ों में माल्टा तो बहुतायत में है, लेकिन उसे उचित बाजार और भाव नहीं मिल रहा, जबकि मांग में रहने वाली नारंगी गायब होती जा रही है।
आंकड़ों का मायाजाल और जमीनी हकीकत
राज्य के नियोजन में सबसे बड़ी बाधा वास्तविक आंकड़ों का अभाव है। उदाहरण के तौर पर, वर्ष 2015-16 के विभागीय आंकड़े पौड़ी जनपद में नींबू वर्गीय फलों का क्षेत्रफल 2700 हेक्टेयर बताते हैं, जबकि पलायन आयोग की रिपोर्ट इसे मात्र 831 हेक्टेयर दर्शाती है। बिना सटीक आंकड़ों के योजनाओं का क्रियान्वयन केवल कागजों तक सीमित रह गया है।
आत्मनिर्भर भारत और 'वोकल फॉर लोकल' की उम्मीद
प्रधानमंत्री सूक्ष्म खाद्य प्रसंस्करण उद्यम योजना (PMFME) और 'वोकल फॉर लोकल' अभियान ने नई उम्मीद जगाई है।
सफलता की मिसाल: पिथौरागढ़ के कनालीछीना में 'ध्वज आजीविका स्वायत्त सहकारिता' केंद्र, ILSP के सहयोग से माल्टा, आंवला और बुरांश का प्रसंस्करण कर युवाओं को रोजगार दे रहा है।
स्वरोजगार: यात्रा मार्गों पर युवा माल्टा और पहाड़ी नींबू का ताजा जूस बेचकर 40-50 रुपये प्रति गिलास की दर से अच्छी कमाई कर रहे हैं।
पुनर्जीवन के लिए क्या हैं समाधान?
लेख में विशेषज्ञों के हवाले से कुछ ठोस सुझाव दिए गए हैं:
न्यूसेलर सीडलिंग: कृषि विज्ञान केंद्र जाखधार (रुद्रप्रयाग) की तर्ज पर उच्च गुणवत्ता वाले 'न्यूसेलर सीडलिंग' (मातृ वृक्ष के समान पौधे) तैयार कर वितरित किए जाएं।
पारदर्शिता और DBT: बागों के जीर्णोद्धार के नाम पर केवल दवाइयां बांटने के बजाय, किसानों को सीधे DBT के माध्यम से सहायता दी जाए ताकि वे खुद उच्च गुणवत्ता वाले निवेश खरीद सकें।
विविधीकरण: केवल माल्टा पर निर्भर न रहकर, यात्रा सीजन (अप्रैल-सितंबर) को ध्यान में रखते हुए आडू, प्लम और खुवानी जैसे 'स्टोन फ्रूट्स' को बढ़ावा दिया जाए, जैसा नैनीताल और रामगढ़ क्षेत्रों में हो रहा है।
निष्कर्ष: पहाड़ की नारंगी सिर्फ एक फल नहीं, बल्कि पहाड़ की आर्थिकी और सेहत का आधार है। यदि समय रहते उद्यान विभाग ने अपनी कार्यशैली में सुधार किया और युवाओं ने प्रसंस्करण को अपनाया, तो वह दिन दूर नहीं जब उत्तराखंड की नारंगी फिर से देश-दुनिया के बाजारों में अपनी मिठास घोलेगी।


