पहाड़ में 'सांसों' पर पहरा: अब स्कूल जाते नौनिहाल भी सुरक्षित नहीं, गोपेश्वर में भालू का तांडव।
गोपेश्वर (चमोली): उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में जंगली जानवरों और इंसानों के बीच का संघर्ष अब जानलेवा मोड़ पर पहुंच गया है। चमोली जिले के पोखरी में मचे कोहराम के बाद अब जिला मुख्यालय गोपेश्वर भी असुरक्षित हो गया है। सोमवार को राजकीय बालिका इंटर कॉलेज (GGIC) की एक छात्रा पर हुए भालू के हमले ने यह साफ कर दिया है कि पहाड़ में अब शिक्षा के मंदिर तक पहुंचने की राह भी 'खूनी' होती जा रही है।
घात लगाए बैठा था काल
जानकारी के मुताबिक, छात्रा सुबह अपने भविष्य को संवारने के लिए स्कूल की ओर जा रही थी, लेकिन रास्ते में झाड़ियों के पीछे 'काल' बनकर भालू घात लगाए बैठा था। अचानक हुए हमले में छात्रा गंभीर रूप से घायल हो गई। हालांकि, छात्रा ने हिम्मत दिखाई और शोर मचाया, जिससे उसकी जान तो बच गई, लेकिन वह बुरी तरह घायल और डरी हुई है।
क्या प्रशासन किसी बड़ी अनहोनी का इंतजार कर रहा है?
इस घटना ने वन विभाग की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। विद्यालय की प्रधानाचार्य ने जो खुलासा किया है, वह चौंकाने वाला है:
पूर्व चेतावनी की अनदेखी: विद्यालय प्रशासन ने पहले ही पत्र लिखकर वन विभाग को खतरे से आगाह किया था।
लापरवाही का आलम: स्कूल के आसपास झाड़ियों के कटान और सुरक्षा बढ़ाने की मांग को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
खतरे में बचपन: अगर समय रहते विभाग जाग जाता, तो शायद आज एक मासूम छात्रा अस्पताल में नहीं होती।
पहाड़ के जीवन पर गहराता संकट
यह महज एक हमला नहीं है, बल्कि पहाड़ के उस जीवन पर प्रहार है जो पहले से ही पलायन और सुविधाओं के अभाव से जूझ रहा है।
शिक्षा पर संकट: जब अभिभावकों को डर लगेगा कि उनका बच्चा स्कूल से वापस आएगा या नहीं, तो वे बच्चों को घर में कैद करने या क्षेत्र छोड़ने को मजबूर होंगे।
खेती-बाड़ी ठप: भालू और तेंदुओं के डर से लोगों ने अपने खेतों में जाना छोड़ दिया है।
प्रशासनिक उदासीनता: पोखरी से लेकर गोपेश्वर तक, जनता पिंजरा लगाने और गश्त बढ़ाने की गुहार लगा रही है, लेकिन कार्रवाई कछुआ गति से चल रही है।
स्थानीय आक्रोश: "अब चुप नहीं बैठेंगे"
स्थानीय ग्रामीणों और अभिभावकों में भारी रोष है। उनका कहना है कि यदि आबादी वाले क्षेत्रों में वन्य जीवों की सक्रियता को रोकने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो वे उग्र आंदोलन को बाध्य होंगे। उनकी प्रमुख मांगें हैं:
प्रभावित क्षेत्रों में तत्काल पिंजरा लगाया जाए।
स्कूल जाने वाले रास्तों पर वन विभाग की गश्त अनिवार्य हो।
घायल छात्रा को उचित मुआवजा और मुफ्त इलाज मिले।
पहाड़ की जवानी और पानी पहले ही पहाड़ के काम नहीं आ रही थी, और अब यहां का बचपन भी असुरक्षित है। क्या 'सुरक्षित उत्तराखंड' का दावा केवल कागजों तक सीमित है? वन विभाग को अपनी कुंभकर्णी नींद त्यागनी होगी, वरना पहाड़ के गांवों में केवल सन्नाटा ही शेष रह जाएगा।


