पर्वतीय क्षेत्रों में चाय उत्पादन स्वरोजगार का अच्छा माध्यम बन सकता है।
उत्तराखंड भौगोलिक रूप से विषम होने के साथ साथ नकदी फसल उत्पादन की दृष्टि से सम्पन्न है। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र अपनी प्राकृतिक सुंदरता के साथ आध्यात्मिक धार्मिक यात्राओं के लिए सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है। पहाड़ों से पलायन यहां बनने वाली रोजगार की योजनाओं और मूलभूत सुविधाओं के न होने से अधिक हुआ है जिसमें सबसे बड़ा कारण रोजगार के साधन उपलब्ध न होना रहा है। पलायन की भयावहता देखनी हो तो यहां के खाली होते गावं और बंजर पड़े खेतों से सहज अनुमान लगाया जा सकता है।
उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों के विकास के लिए यहां पर जलवायु के अनुसार नकदी फसल उत्पादन और अन्य स्वरोजगार जैसे ग्रेडिंग पैकेजिंग लेवलिंग आदि कार्यों को करने की आवश्यकता है। जिससे पहाड़ अपने में समृद्ध हो सकें व यहां के निवासियों को बाहर रोजगार के लिए पहाड़ छोड़कर न जाना पड़े। इसी को देखते हुए उत्तराखंड के अल्मोडा में चाय विकास बोर्ड की स्थापना - उत्तर प्रदेश शासनकाल में 1996 में चाय विकास बोर्ड की स्थापना हुई। बोर्ड ने चाय की खेती के लिए उपयुक्त पर्वतीय क्षेत्र में चाय उत्पादन की योजना तैयार की तथा उत्तराखंड में चाय विकास परियोजना - उत्तर प्रदेश शासनकाल में उत्तराखंड में चाय विकास परियोजना वर्ष 1993-94 में शुरू हुई। उत्तराखंड चाय विकास बोर्ड की स्थापना - 12 फरवरी 2004 को की गयी थी।
1835 में जब अंग्रेजों ने कोलकाता से चाय के 2000 पौधो की खेप उत्तराखंड भेजी तो उन्हे भी विश्वास नही था कि धीरे धीरे यहां के बडे क्षेत्र में चाय की खेती पसर जाएगी। वर्ष 1838 में पहली बार जब यहां उत्पादित चाय कोलकाता भेजी गई तो कोलकाता चैंबर्स ऑफ कॉमर्स ने इसे हर मानकों पर खरा पाया। धीरे धीरे देहरादून, कौसानी, मल्ला कत्यूर समेत अनेक स्थानें पर चाय की खेती होने लगी।
चाय की खेती के लिए अलग-अलग जगहों की मिट्टी की जांच में अधिकांश जगहों की मिट्टी चाय की खेती के लिए अनुकूल पायी गई है। चाय की खेती पहाड़ के किसानों के लिए बेहतर आय का जरिया बन सकता है और वह आर्थिक रूप से मजबूत भी हो सकते हैं। मृदा परीक्षण प्रयोगशाला भवाली में उत्तराखंड के अलग-अलग जिलों से मिट्टी के नमूने लाकर उसकी गुणवत्ता की जांच की जाती है। उत्पादन के लिए यहां मिट्टी के 4-5 पैरामीटर्स जांचे जाते हैं। जांच रिपोर्टों में उत्तराखंड के अधिकांश जिलों की मिट्टी चाय उत्पादन के लिए मुफीद है।
वर्तमान समय में उत्तराखंड के 9 जिलों में चाय पौध रोपण व नर्सरी विकास का कार्य प्रगति पर है, अल्मोड़ा, नैनीताल, बागेश्वर, चंपावत, पिथौरागढ़, चमोली, रुद्रप्रयाग, पौड़ी और टिहरी जनपदों में पौध रोपण व नर्सरी विकास का कार्यक्रम चल रहा है। उत्तराखंड राज्य में ऐसी कई जगहें हैं, जहां चाय की खेती काफी अच्छी हो सकती है। इसके लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकार भी आगे आकर किसानों को प्रोत्साहित कर रही है।
चाय उत्पादन के लिए किसानों की भूमि को लीज पर लेते हैं -
चाय उत्पादन के लिए किसानों की जमीनों को कुछ वर्षों तक लीज पर लिया जाता है। किसानों से लीज पर ली हुई जमीं पर पौध रोपण किया जाता है व रोपित पौधों की देखरेख के लिए उन्ही परिवारों को मनरेगा के माध्यम से देखरेख के लिए रखा जाता है जिससे की उन परिवारों को रोजगार के साथ साथ लीज की रकम भी मिल जाए और वह परिवार आत्मनिर्भर बन सकें।
सर्वप्रथम 1824 में चाय की खेती को कुमांउ में ब्रिटिश लेखक बिशप हेबर के द्वारा शुरू किया गया था।
> 1835-36 में लक्ष्मेंश्वर, अल्मोडा में चाय का पहला बागान डॉ फॉल्कनर के द्वारा लगाया था।
> सन् 1835 में टिहरी गढवाल में चाय की कृषि प्रारंभ की गई थी।
> मेजर कार्बेट के द्वारा 1841 में हवालबाग, अल्मोडा में चाय का बगीचा स्थापित किया गया था।
> 1843 में गंडोलिया पौडी गढवाल में चाय की फैक्टी को कैप्टन हडलस्टन के द्वारा स्थापित किया गया था। जो गढवाल में स्थापित होने वाली पहली फैक्टरी थी। इस समय कुमांउ कमीश्नर जार्ज टॉमस लुशिगटन थे।
> गंडोलिया पौडी गढवाल में डी.ए.चौफिन नामक एक चीनी चाय का काश्तकार के द्वारा सरकारी चाय फैक्टरी की स्थापना की गई, 1844 में देहरादून के पास कौलागढ में सरकारी बागान की शुरूआत डॉ. जेमिसन के नेतृत्व में हुई थी।