भालू के हमले से ग्रामीण घायल, एंबुलेंस के लिए तीन घंटे का इंतजार

उत्तराखण्ड में बढ़ते मानव वन्यजीव संघर्ष के कारण ओर समाधान,
खबर शेयर करें:

 

भालू के हमले से ग्रामीण घायल, एंबुलेंस के लिए तीन घंटे का इंतजार।

जान के लाले और 'सिर्फ़ कूड़े' का सरकारी बहाना।

वन्यजीवों का आतंक: पहाड़ में दहशत का माहौल, स्वास्थ्य सेवाओं की भी खुली पोल।


चमोली (उत्तराखंड)। देवभूमि उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में गुलदारों और भालुओं का आतंक थमने का नाम नहीं ले रहा है, जिसके चलते आम जनजीवन जोखिम में है। चमोली जिले की निजमुला घाटी इसका जीता-जागता उदाहरण है, जहाँ हाल ही में एक भालू के हमले ने न सिर्फ एक ग्रामीण को गंभीर रूप से घायल किया, बल्कि राज्य की चरमराई स्वास्थ्य सेवाओं की कड़वी सच्चाई भी उजागर कर दी।

 भालू के हमले से ग्रामीण घायल, एंबुलेंस के लिए तीन घंटे का इंतजार

निजमुला घाटी के ग्राम दुर्मी के मक्खी तोक में कल दोपहर लगभग एक बजे, गौणा निवासी गोपाल लाल पुत्र लछमू लाल पर उस समय घात लगाकर बैठे एक भालू ने हमला कर दिया, जब वह अपनी बकरियाँ चराकर घर लौट रहे थे। हमले में गोपाल लाल गंभीर रूप से घायल हो गए।

सबसे बड़ी त्रासदी उपचार में हुई देरी बनी। ग्रामीणों ने तुरंत 108 एंबुलेंस को कॉल किया, लेकिन ग्रामीणों के अनुसार, तीन घंटे बाद भी एंबुलेंस मौके पर नहीं पहुँची। मजबूरन, ग्रामीणों को घायल को एक निजी गाड़ी से विरही तक लाना पड़ा, जहाँ जाकर उन्हें आखिरकार 108 एंबुलेंस मिली। गौणा के सूरेन्द्र लाल ने जानकारी दी कि घायल गोपाल लाल अब जिला अस्पताल में भर्ती हैं और उनकी स्थिति खतरे से बाहर है, लेकिन इस घटना ने स्पष्ट कर दिया कि दूरस्थ क्षेत्रों में स्वास्थ्य महकमे की यह लापरवाही कितनी जानलेवा हो सकती है।

 निजमुला घाटी में भालू का बढ़ता खौफ

इस घटना ने निजमुला घाटी के गाँवों में चिंता और भय का माहौल पैदा कर दिया है। गौणा, दुर्मी, सैंजी, निजमुला, पगना पाणा, ईरानी और झिंझी सहित कई गाँवों के ग्रामीण दहशत में हैं। भालू प्रतिदिन ग्रामीणों की नज़र में आ रहे हैं, जिससे खेतों में काम करना और रास्तों पर आवाजाही करना बेहद जोखिम भरा हो गया है। ब्यारा के पूर्व प्रधान ने बताया कि राइका निजमुला जैसे शिक्षण संस्थान के पास भी भालू दिखाई दे रहे हैं, जहाँ 200 से अधिक बच्चे पढ़ते हैं।

ग्रामीणों ने वन विभाग से तत्काल प्रभावी कदम उठाने और भालुओं की बढ़ती संख्या को नियंत्रित करने की मांग की है। उन्होंने चेतावनी दी है कि यदि जल्द ही भालुओं को 'मारने' के आदेश नहीं दिए गए, तो वे आंदोलन करने को बाध्य होंगे।

जिम्मेदारी से भागना या वास्तविक पारिस्थितिक संकट?

वन विभाग के अधिकारियों का दावा है कि वे लगातार गश्त कर रहे हैं और आवश्यकता पड़ने पर फायरिंग भी की जा रही है। वहीं, वन विभाग और कुछ सरकारी अधिकारी अक्सर कूड़े के अनुचित निस्तारण को वन्यजीवों के बस्तियों में आने का मुख्य कारण बताते हैं।

हालांकि, स्थानीय निवासियों और विशेषज्ञों का एक बड़ा वर्ग इस तर्क को 'वास्तविक पारिस्थितिक संकट' से ध्यान भटकाने की कोशिश मानता है। 40 वर्ष से अधिक उम्र के स्थानीय लोग याद करते हैं कि पहले गाँवों के पास गंदगी होने के बावजूद, जानवर कभी इस तरह हमलावर नहीं होते थे और उनकी संख्या भी इतनी अधिक नहीं थी।

जान के लाले और 'सिर्फ़ कूड़े' का सरकारी बहाना

उत्तराखंड के पहाड़ों में गुलदारों और भालुओं के बढ़ते हमले अब सामान्य घटनाएँ नहीं, बल्कि एक गंभीर पारिस्थितिक और प्रशासनिक संकट बन चुके हैं। यह बात केवल एक घायल ग्रामीण की पीड़ा तक सीमित नहीं है, बल्कि उस गहरे डर को दर्शाती है जिसके साये में यहाँ का आम नागरिक जी रहा है। एक तरफ हिंसक वन्यजीवों का आतंक और दूसरी तरफ, एक जीवनरक्षक एंबुलेंस के लिए तीन घंटे का इंतजार—यह दृश्य 'डबल इंजन' की सरकार के उस दावे को खोखला साबित करता है, जहाँ लोगों की सुरक्षा और स्वास्थ्य सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए।

वन विभाग का 'कूड़े के अनुचित निस्तारण' को मुख्य कारण बताकर पल्ला झाड़ लेना इस बात का संकेत है कि सरकार इस समस्या की गहराई को या तो समझ नहीं रही है, या जानबूझकर स्वीकार नहीं करना चाहती। यह तर्क कि 'स्वच्छ भारत मिशन' की नाकामी के कारण ही वन्यजीव बस्तियों में घुस रहे हैं, दशकों से पहाड़ों में रहने वाले लोगों के अनुभव के विपरीत है। स्थानीय निवासियों और कई विशेषज्ञों का मानना है कि हिंसक जानवरों की संख्या सरकारी आँकड़ों से कहीं ज़्यादा है, जिसे छुपाया जा रहा है।

जरूरत है कि सरकार केवल गश्त और बेअसर तर्कों से बाहर आए। वन्यजीवों के व्यवहार, उनकी आबादी के घनत्व, और मानव-वन्यजीव संघर्ष के वास्तविक कारणों पर पारदर्शी और वैज्ञानिक अध्ययन किया जाए। जब तक सरकार इस समस्या को 'केवल कूड़े' की समस्या मानकर चलेगी, तब तक पहाड़ों में लोगों की जान इसी तरह आफत में रहेगी, और यह त्रासदी उत्तराखंड की प्रगति पर एक प्रश्नचिह्न बनकर उभरती रहेगी।

खबर पर प्रतिक्रिया दें 👇
खबर शेयर करें:

हमारे व्हाट्सएप्प ग्रुप से जुड़ें-

WhatsApp पर हमें खबरें भेजने व हमारी सभी खबरों को पढ़ने के लिए यहां लिंक पर क्लिक करें -

यहां क्लिक करें----->