माल्टा फल पर संकट: सरकारी उपेक्षा से उत्तराखंड के उत्पादक निराश, बाजार और MSP की जंग।
सरकार दीर्घकालिक रणनीति के साथ वास्तविक उत्पादन आँकड़ों के आधार पर MSP सुनिश्चित नहीं करती, तब तक विटामिन-सी से भरपूर इस पौष्टिक फल के उत्पादक निराशा के इस चक्र से बाहर नहीं निकल पाएंगे।
उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में, जहां नीम्बूवर्गीय फलों का उत्पादन 2019-20 के आँकड़ों के अनुसार 21,739 हेक्टेयर क्षेत्रफल से 91,177 मीट्रिक टन तक पहुँचता है, वहाँ माल्टा उत्पादक किसान सरकारी अनदेखी और बाजार की कड़ी प्रतिस्पर्धा के कारण एक गहरे संकट से जूझ रहे हैं। नवंबर-दिसंबर का महीना आते ही अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, पौड़ी, चमोली और रुद्रप्रयाग जैसे मुख्य उत्पादक क्षेत्रों में माल्टा पेड़ों से गिरकर बड़ी मात्रा में सड़ रहा है, क्योंकि किसानों को उनके विशुद्ध रूप से जैविक उत्पाद का उचित मूल्य नहीं मिल पा रहा है।
किसानों की इस हताशा का मुख्य कारण न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की अनुपस्थिति है। दशकों पहले तिलवाड़ा में प्रोसेसिंग यूनिट स्थापित करने या कलेक्शन सेंटर पर ₹7-₹9 प्रति किलो का समर्थन मूल्य देने जैसे सरकारी वादे आज तक जमीन पर नहीं उतर पाए हैं। भले ही पिछले वर्ष माल्टा को GI टैग मिला हो और PM FME योजना के तहत प्रोसेसिंग यूनिटों को सब्सिडी दी जा रही हो, लेकिन इस वर्ष राज्य सरकार द्वारा माल्टा का MSP निर्धारित न करने से ये प्रयास अप्रभावी साबित हो रहे हैं।
बाजार में, उत्तराखंड के माल्टा को आयातित किन्नू और संतरे से कड़ी प्रतिस्पर्धा मिल रही है। जहां मीठे, रसीले और कम बीज वाले किन्नू ₹80 से ₹100 प्रति किलो तक बिक रहे हैं, वहीं उत्तराखंड का माल्टा प्रायः छोटे आकार और अधिक बीज के कारण आधुनिक बाजार मानकों पर पिछड़ रहा है। पर्वतीय कृषक बागवान उद्यम संगठन के जिलाध्यक्ष सतीश भट्ट के अनुसार, किसान बंदरों और चिड़ियों से फसल की रक्षा करने के बावजूद उचित मूल्य न मिलने से माल्टा उत्पादन से विमुख हो रहे हैं। वह मोटे अनाज की तरह माल्टा के लिए भी एक मजबूत सरकारी विपणन अभियान चलाने की मांग करते हैं।
माल्टा उत्पादकों की निराशा का आलम यह है कि वे व्यापारियों को 650 रुपये प्रति बोरी (लगभग 250 फल) की दर पर फल बेचने को मजबूर हैं, क्योंकि कोई अन्य खरीदार नहीं है। एक हताश किसान ने बताया कि उनके पास इस समय 35 से 40 क्विंटल तक माल्टा फल पेड़ों पर लगे हैं, और वे बस इंतजार कर रहे हैं कि सरकार कब MSP घोषित करे। उनका कहना है कि "खाली रहने से तो बेगार ही भली है", क्योंकि बिना खरीददार के फल खेतों में सड़ रहे हैं।
जब तक सरकार गुणवत्ता-केंद्रित (माल्टा की बेहतर किस्मों को प्रोत्साहित करना) और बाजारोन्मुखी (प्रसंस्करण और विपणन शृंखला) दीर्घकालिक रणनीति के साथ वास्तविक उत्पादन आँकड़ों के आधार पर MSP सुनिश्चित नहीं करती, तब तक विटामिन-सी से भरपूर इस पौष्टिक फल के उत्पादक निराशा के इस चक्र से बाहर नहीं निकल पाएंगे।


