कोर्ट के फैसले से उपनल को 'समान वेतन' का लाभ, पर अन्य आउटसोर्स कर्मचारियों का भविष्य मझधार में।
प्रतियोगी छात्रों व उनके परिजनों के सपने टूटे।
देहरादून। उत्तराखंड में आउटसोर्स कर्मचारियों को लेकर सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच चली लंबी कानूनी लड़ाई का पटाक्षेप हो गया है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में राज्य सरकार की ओर से दायर सभी रीव्यू पिटीशन (सिविल) को खारिज करते हुए उपनल (UPNL) के माध्यम से विभिन्न विभागों में 12 वर्ष से कार्यरत कर्मचारियों को बड़ी राहत दी है। कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि उन्हें 'समान कार्य-समान वेतन' के सिद्धांत के अनुरूप न्यूनतम वेतनमान और महंगाई भत्ता दिया जाएगा। यह निर्णय मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के साथ हुई लंबी वार्ता के बाद मांगों पर बनी सहमति के बाद लिया गया था, जिसे अब सुप्रीम कोर्ट की मुहर मिल गई है।
उपनल को ही क्यों लाभ? मझधार में अन्य एजेंसियां
यह फैसला जहां उपनल कर्मचारियों के लिए बड़ी राहत लेकर आया है, वहीं राज्य में अन्य आउटसोर्स एजेंसियों व अन्य के माध्यम से सरकारी कार्यालयों में सेवाएं दे रहे हजारों कर्मचारियों के भविष्य को मझधार में छोड़ गया है।
सवाल यह उठता है कि जब अन्य एजेंसियों के कार्मिक भी लगातार सरकारी कार्यालयों में उन्हीं पदों पर सेवाएं दे रहे हैं, तो उन पर समान दृष्टिपात क्यों नहीं किया गया? उपनल का मिशन स्पष्ट रूप से "प्रशिक्षण, पुनर्वास एवं पुनः रोजगार के माध्यम से पूर्व सैनिकों एवं उनके आश्रितों को सम्मानित एवं स्वावलंबी बनाना" है, बावजूद इसके, इसे एक व्यापक आउटसोर्सिंग एजेंसी के रूप में इस्तेमाल किया गया और अब इसके कर्मचारियों को ही विशेष लाभ दिया जा रहा है। अन्य आउटसोर्स कर्मचारियों का दर्द है कि वे भी समान कार्य कर रहे हैं, पर उन्हें इस लाभ से वंचित रखा गया है।
प्रतियोगी छात्रों और अभिभावकों का दर्द: 'हमारे सपने चकनाचूर हो गए'
इस फैसले ने राज्य के उन लाखों युवाओं और उनके अभिभावकों को गहरा आघात पहुंचाया है, जो वर्षों से लोक सेवा आयोग (UKPSC) और उत्तराखंड अधीनस्थ सेवा चयन आयोग (UKSSSC) द्वारा आयोजित होने वाली प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुटे हैं।
आर्थिक बोझ और मानसिक विक्षिप्तता: युवाओं का तर्क है कि जब आउटसोर्स के माध्यम से सेवा देने को ही योग्यता का पैमाना माना जाना था, तो सरकार ने इन आयोगों पर करोड़ों रुपए का आर्थिक बोझ क्यों डाला? प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्र इस दौर में मानसिक रूप से विक्षिप्त जैसा जीवन जीने को मजबूर हैं। उनका समय, श्रम और मानसिक शांति लगातार बढ़ते कॉम्पटीशन और अनिश्चितता के चलते दांव पर लगी हुई है।
पहाड़ के अभिभावकों की पीड़ा: पहाड़ों में रोजगार की कमी के चलते हजारों परिजन अपनी दैनिक मजदूरी की गाढ़ी कमाई से अपने बच्चों को उच्च शिक्षा और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए शहरों में भेज रहे हैं। उन गरीब पिताओं की परवाह कौन करेगा, जो परिवार का पेट भरने के लिए भी पर्याप्त धनराशि नहीं जुटा पाते, लेकिन बेटे-बेटी के डॉक्टर, इंजीनियर या सरकारी अधिकारी बनने के सपने को साकार करने के लिए कर्ज़ लेकर पढ़ाई का खर्च उठा रहे हैं।
टूटे हुए सपने: युवाओं और उनके परिजनों का मानना है कि जब उपनल आउटसोर्स वालों को इस तरह से 'समान कार्य समान वेतन' का लाभ मिलेगा, तो यह उनके वर्षों की तपस्या और मेहनत को व्यर्थ कर देगा। एक प्रतियोगी छात्र ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, "हमारा कंपटीशन एक लिखित परीक्षा से नहीं, बल्कि अब सीधी सरकारी नौकरी की राह देख रहे आउटसोर्स कर्मचारियों से हो गया है। हमारे सपने चकनाचूर हो गए हैं।"
सरकार को अब इस बात पर गंभीरता से विचार करना होगा कि न्याय की कसौटी पर एक वर्ग को लाभ देते हुए, दूसरे वर्ग के लाखों युवाओं के भविष्य और उनके परिजनों की उम्मीदों को कैसे संभाला जाए। यह केवल नौकरी का सवाल नहीं, बल्कि उत्तराखंड के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने और न्याय की भावना का भी सवाल है।


