धारकुडी बाँगर: भालू के खूनी हमले से दहला ग्रामीण क्षेत्र, सास-बहू समेत कई महिलाएँ घायल।
धारकुडी की घटना एक चेतावनी है कि यदि मानव और वन्यजीवों के बीच संतुलन बहाल नहीं किया गया, तो भविष्य में ऐसे संघर्ष और भी भयावह रूप ले सकते हैं।
रुद्रप्रयाग, उत्तराखंड। पश्चिमी बांगर के धारकुडी गाँव में उस समय दहशत फैल गई जब घास-पत्ती लेने जंगल की ओर जा रही सात महिलाओं पर एक भालू ने अचानक हमला कर दिया। इस हृदय विदारक घटना में सास और बहू सहित चार महिलाएँ बुरी तरह लहूलुहान हो गईं, जबकि पांच अन्य महिलाओं ने किसी तरह भागकर अपनी जान बचाई। यह घटना गाँव के उत्तर-पूरब दिशा में लस्तर हिलाईं नहर के हेड के पास खजरी तोक में हुई।
हमले में कई महिलाएँ घायल
भालू के इस क्रूर हमले में श्रीमती कीड़ी देवी (60 वर्ष), सीमा देवी (27 वर्ष), सोना देवी (39 वर्ष) और पिंकी देवी (32 वर्ष, जो कि गर्भवती हैं) को अधिक चोटें और गहरे घाव आए हैं। इनके अलावा सुनीता देवी (33 वर्ष) और फूल देवी (35 वर्ष) भी आंशिक रूप से घायल हुई हैं। सभी घायल महिलाओं को ग्रामीणों की मदद से तुरंत जिला अस्पताल रुद्रप्रयाग ले जाया गया, जहाँ उनका उपचार जारी है।
घटना की सूचना मिलते ही, रुद्रप्रयाग वन प्रभाग की क्विक रिस्पांस टीम (QRT), 15 सदस्यीय वनकर्मी दल, वन क्षेत्राधिकारी उत्तरी जखोली सुरेन्द्र सिंह के नेतृत्व में मौके पर पहुँचा।
वन विभाग पर उठते सवाल और भविष्य की योजना
इस घटना पर प्रतिक्रिया देते हुए, उप प्रभागीय वनाधिकारी डॉ. दिवाकर पंत ने बताया कि वन विभाग की टीम घटना स्थल के आसपास भालू की गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए ट्रेप कैमरे लगा रही है। इसके साथ ही प्रभावित क्षेत्र में पटाखा फोड़कर और वन कर्मियों द्वारा गश्त की जाएगी। उन्होंने मानव-वन्य जीव संघर्ष को कम करने के लिए जन जागरूकता अभियान चलाने की बात भी कही।
हालांकि, ग्राम प्रधान धारकुडी, श्रीमती स्नेहा पंवार ने वन विभाग की कार्रवाई पर गंभीर सवाल उठाए हैं। उन्होंने कहा कि "क्षेत्र में लगातार हो रही घटनाओं से वन विभाग सबक नहीं ले रहा है और क्यूआरटी टीम को मात्र एक प्लास्टिक का डंडा पकड़ा रखा है, जो सिर्फ खानापूर्ति है।" उन्होंने क्षेत्र में जानवरों की केयरिंग कैपेसिटी (वहनीय क्षमता) के आधार पर गणना कर उन्हें अन्य सुरक्षित स्थानों पर शिफ्ट करने की मांग की।
ग्रामीण राजेंद्र सिंह पंवार, बीरबल सिंह, कपूर सिंह व अन्य ने भी विभाग की निष्क्रियता पर गुस्सा व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि विकासखंड जखोली में एक वर्ष के भीतर गुलदार द्वारा तीन महिलाओं को मारा जाना और आठ व्यक्तियों को घायल करने की घटनाएँ हुई हैं। साथ ही भालू ने गोशालाओं को तोड़कर पालतू जानवरों को भी मारा है। ग्रामीणों ने सवाल किया कि वन विभाग इन जंगली जानवरों के आवास और भोजन की व्यवस्था के लिए बजट क्यों नहीं बनाता, जिससे ग्रामीण महिलाएँ—जो "पहाड़ की रीढ़" हैं—लगातार हमलों का शिकार होकर कमजोर हो रही हैं।
मानव-वन्यजीव संघर्ष: कारण, पर्यावरणीय प्रभाव और बचाव के उपाय
धारकुडी बाँगर की यह घटना उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में लगातार बढ़ रहे मानव-वन्यजीव संघर्ष (Human-Wildlife Conflict) की एक गंभीर तस्वीर पेश करती है। यह केवल एक सुरक्षा समस्या नहीं है, बल्कि एक जटिल पर्यावरणीय और सामाजिक-आर्थिक संकट है।
पर्यावरणीय प्रभाव और निकटता के कारण
जंगली जानवरों का बस्तियों के नजदीक आना मुख्य रूप से प्राकृतिक संतुलन में आए बदलावों का परिणाम है, जिसके गहरे पर्यावरणीय प्रभाव हैं:
वन्यजीवों के आवास का सिकुड़ना (Habitat Fragmentation): सड़कों, जलविद्युत परियोजनाओं, शहरीकरण और अनियोजित विकास के कारण जंगल लगातार छोटे टुकड़ों में बँट रहे हैं। इससे जानवरों का प्राकृतिक आवागमन बाधित होता है और वे भोजन तथा पानी की तलाश में मानव बस्तियों की ओर रुख करते हैं।
शिकार की कमी: शिकार के प्राकृतिक स्रोतों में कमी आने के कारण मांसाहारी जानवर (जैसे गुलदार और भालू) आसानी से उपलब्ध शिकार (जैसे पालतू मवेशी और मनुष्य) की तलाश में गाँवों के पास पहुँचते हैं।
जंगल में भोजन की कमी: जंगल की आग, अत्यधिक चराई और वनस्पति के बदलते पैटर्न के कारण भालू जैसे शाकाहारी/सर्वाहारी जानवरों के लिए प्राकृतिक भोजन (फल, जामुन) की कमी हो जाती है।
जलवायु परिवर्तन: तापमान और वर्षा के पैटर्न में बदलाव से वन्यजीवों के वितरण और व्यवहार पर असर पड़ रहा है, जिससे उनका मानव क्षेत्रों में प्रवेश बढ़ रहा है।
खुले में कूड़ा-कचरा: बस्तियों के आस-पास फेंका गया भोजन और कूड़ा-कचरा भालू और अन्य जानवरों को आकर्षित करता है, जिससे वे लगातार मानव क्षेत्रों के आदी हो जाते हैं।
बचाव के उपाय और आगे की राह
इस बढ़ती समस्या से निपटने के लिए बहु-आयामी और दीर्घकालिक रणनीति की आवश्यकता है:
वन्यजीव गलियारों का संरक्षण: जानवरों के प्राकृतिक आवागमन मार्गों (कॉरिडोर) को सुरक्षित रखना और अतिक्रमण से बचाना सबसे महत्वपूर्ण है, ताकि वे बस्तियों से दूर रह सकें।
पर्याप्त वन संसाधनों का विकास: वन विभाग को जंगल के अंदर ही भालुओं के लिए फलों के पेड़ (जैसे बेर, अखरोट) और अन्य वन्यजीवों के लिए चारा और पानी के स्रोत विकसित करने चाहिए, ताकि उन्हें भोजन के लिए बाहर न आना पड़े।
जन-जागरूकता और प्रशिक्षण: स्थानीय समुदायों को जानवरों के व्यवहार, आपातकालीन स्थिति में क्या करें और क्या न करें, इसकी जानकारी देना आवश्यक है। समूह में काम करना, खासकर सुबह और शाम के समय, हमलों के जोखिम को कम करता है।
बेहतर मुआवजा और त्वरित सहायता: घायल या मारे गए व्यक्तियों और उनके परिवारों को त्वरित और पर्याप्त मुआवजा मिलना चाहिए। वन विभाग की QRT टीमों को आधुनिक उपकरण और पर्याप्त बल के साथ सशक्त बनाना चाहिए।
तकनीकी समाधान: संवेदनशील क्षेत्रों में सौर ऊर्जा से चलने वाली बाड़ (सोलर फेंसिंग), रात की गश्त, और जानवरों की आवाजाही पर नज़र रखने के लिए जीपीएस कॉलर या कैमरा ट्रैप का उपयोग करना चाहिए।
क्षमता का आकलन: धारकुडी के ग्राम प्रधान की मांग के अनुरूप, क्षेत्र में वन्यजीवों की "कैरींग कैपेसिटी" का वैज्ञानिक आकलन किया जाना चाहिए। यदि संख्या बहुत अधिक है, तो कुछ जानवरों को स्थानांतरित (Shift) करने पर विचार किया जा सकता है।
धारकुडी की घटना एक चेतावनी है कि यदि मानव और वन्यजीवों के बीच संतुलन बहाल नहीं किया गया, तो भविष्य में ऐसे संघर्ष और भी भयावह रूप ले सकते हैं।



