उत्तराखण्ड में एप्पल मिशन की सब्सिडी को जमीन खा गयी या आसमान

उत्तराखण्ड में एप्पल मिशन,
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एप्पल मिशन की सब्सिडी: ज़मीन खा गई या आसमान?

  • 80% सब्सिडी का सपना दिखा किसानों को फंसाया, 545 बागवानों के 42 करोड़ रुपये सालों से अटके।

  • पलायन की मार झेलते पहाड़ों में बागवानी की उम्मीद पर फिरा पानी, किसान कर्ज के बोझ तले दबे।

  • विभागीय जांच का हवाला देकर सरकार ने साधी चुप्पी, नई सेब नीति की घोषणा बनी छलावा।

  • धैर्य का बांध टूटा, अब सड़कों पर उतरने और प्रदर्शन की तैयारी में किसान संगठन।


देहरादून।

उत्तराखंड के पलायन प्रभावित पहाड़ी गांवों में हरियाली और खुशहाली का सपना देख रहे सैकड़ों किसानों की उम्मीदें सरकारी फाइलों में दफन होकर रह गई हैं। केंद्र सरकार के महत्वाकांक्षी 'एप्पल मिशन' के तहत 80 प्रतिशत सब्सिडी का सब्जबाग दिखाकर बाग लगवाए गए, लेकिन दो से पांच साल बीत जाने के बाद भी जब सब्सिडी की पाई तक नहीं मिली, तो अब किसानों का धैर्य जवाब दे गया है। आलम यह है कि अपनी जमा-पूंजी और कर्ज लगाकर बाग तैयार करने वाले 545 किसान आज खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं और सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतरने की तैयारी में हैं।

क्या है पूरा मामला?

केंद्र सरकार के राष्ट्रीय बागवानी मिशन के तहत उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में 'एप्पल मिशन' की शुरुआत की गई। इस योजना में किसानों को 70% केंद्रीय और 10% राज्य सरकार की सब्सिडी, यानी कुल 80% सरकारी मदद का वादा किया गया था। इस भरोसे पर राज्य के 545 किसानों ने अपनी 20% पूंजी और बैंकों से कर्ज लेकर सेब के बगीचे तैयार किए। लेकिन आरोप है कि न केवल उन्हें सब्सिडी के लगभग 42 करोड़ रुपये आज तक नहीं मिले, बल्कि कुछ मामलों में उनकी 20% राशि भी विभागीय प्रक्रियाओं में उलझकर रह गई।

किसानों का कहना है कि बगीचे लगाए कई साल हो गए, लेकिन सब्सिडी जारी नहीं होने से वे कर्ज के बोझ तले दबते जा रहे हैं। बागों के रखरखाव का खर्च निकालना भी अब असंभव होता जा रहा है।

जांच के फेर में फंसी किसानों की सब्सिडी

जब भी काश्तकार सब्सिडी की मांग करते हैं, तो उन्हें कृषि एवं बागवानी विभाग में चल रही सीबीआई जांच का हवाला दिया जाता है। इस पर किसानों का तर्क स्पष्ट है। उनका कहना है कि सीबीआई जांच विभागीय अधिकारियों की कार्यप्रणाली की हो रही है, न कि योजना के लाभार्थियों की। ऐसे में अधिकारियों की गलती का खामियाजा राज्य के अन्नदाता क्यों भुगतें? सरकार को तत्काल उनका भुगतान जारी करना चाहिए।

पलायन के दर्द पर सरकारी नमक

यह स्थिति तब और भी गंभीर हो जाती है, जब हम उत्तराखंड के खाली होते गांवों की तस्वीर देखते हैं। रुद्रप्रयाग जैसे जनपदों से जब खबरें आती हैं कि किसी के अंतिम संस्कार के लिए कंधा देने वाले भी गांव में नहीं बचे, तो पलायन का दर्द और गहरा हो जाता है। ऐसे मुश्किल हालात में जो कुछ किसान अपनी जड़ों को सींचने और बंजर खेतों को आबाद करने का साहस दिखा रहे हैं, सरकारी उदासीनता उनकी कमर तोड़ रही है।

पीड़ित काश्तकार कपिल नौटियाल मोलधार, जौनपुर, थत्युड (उत्तराखंड)  की जुबानी-

मेरा नाम कपिल नौटियाल है, मैं विकासखंड जौनपुर के मोलधार गांव का रहने वाला हूं। मैं भी अन्य युवाओं की तरह रोज़गार के लिए उत्तराखंड से बाहर नौकरी करता था, लेकिन कोविड लॉकडाउन के दौरान जब गांव लौटा, तो संकल्प लिया कि अब अपनी जन्मभूमि पर रहकर ही कुछ ऐसा करूंगा जिससे स्वयं का भी भविष्य संवरे और गांव के लोग भी प्रेरित हों।

इसी सोच के साथ मैंने सरकार की एप्पल मिशन योजना के अंतर्गत कार्य करना शुरू किया। इस उम्मीद में कि पहाड़ में रहकर भी सम्मानजनक आजीविका मिल सकती है। लेकिन अफ़सोस की बात है कि इस योजना की लापरवाही और संबंधित अधिकारियों की उदासीनता ने मेरे जैसे कई युवाओं और किसानों को फिर से पलायन की ओर धकेल दिया है।

मैं कोई आज की बात नहीं कर रहा – मैं 2021 से लगातार प्रयासरत हूं कि इस योजना से जुड़े सभी किसानों को समय पर भुगतान मिले। मैंने कई बार हेल्पलाइन पर शिकायत दर्ज करवाई, DHO साहब से बात की, माननीय मंत्री जी से लिखित व मौखिक संवाद भी किया... पर नतीजा शून्य रहा।

योजना में कोई कमी नहीं थी – कमी थी उसे ईमानदारी से लागू करने की नीयत और जिम्मेदारी निभाने के जज़्बे की। इस उदासीन रवैये का नुकसान हमें – हम युवाओं और किसानों को उठाना पड़ रहा है।

हमारा मकसद साफ है – मेहनत का हक़ मांगना।

संगठन ने दी आंदोलन की चेतावनी

इस ज्वलंत मुद्दे पर पर्वतीय कृषक बागवान उद्यम संगठन ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने का ऐलान किया है। संगठन के संरक्षक राजेंद्र प्रसाद कुकसाल का कहना है कि एक तरफ सरकार किसानों की आय दोगुनी करने के दावे करती है, वहीं दूसरी ओर विभागीय झोल के चलते किसान अपनी जमीन बेचकर पलायन करने को मजबूर हो रहा है। उन्होंने कहा कि कई बार पत्राचार और विभागीय बैठकों के बाद भी जब कोई हल नहीं निकला, तो अब संगठन के पास धरना-प्रदर्शन के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है।

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