सहकारी खेती: उत्तराखंड के किसानों के लिए एक बेहतर विकल्प।
(लेखक: विजयपाल नेगी, निदेशक IRD Foundation एवं सतीश भट्ट - डायरेक्टर, लस्तर हिलाईं फार्मर प्रोड्यूसर कंपनी)
विश्व के अनेक देशों में आज भी एक बड़ी आबादी अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है, और इन देशों की अर्थव्यवस्थाओं को आगे बढ़ाने में कृषि का महत्वपूर्ण योगदान है। भारत में, ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली बड़ी आबादी कृषि के माध्यम से जीवनयापन करती है। यह क्षेत्र न केवल बढ़ती जनसंख्या का पेट भरता है, बल्कि ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में रोज़गार सृजित कर बेरोज़गारी कम करने में भी अग्रणी है। कृषि को मानवता के पोषण, प्रगति और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।
वर्तमान में, भारतीय कृषि मुख्य रूप से छोटे और सीमांत किसानों के बीच बँटी हुई है। उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य में, जहाँ जोत का आकार और भी छोटा है, वहाँ किसानों को उच्च इनपुट लागत, ऋण तक सीमित पहुँच, आधुनिक तकनीक के उपयोग में सीमाएँ, संगठित बाजारों की अनुपलब्धता और मानसून की अनिश्चितता जैसी कई गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
इन चुनौतियों का समाधान करने, कृषि उत्पादकता बढ़ाने, और किसानों की आर्थिक स्थिरता में सुधार के लिए सहकारी खेती को अपनाना अत्यंत आवश्यक है। यह मॉडल विशेष रूप से छोटे और सीमांत किसानों के लिए, जिनकी व्यक्तिगत क्रय शक्ति सीमित है, एक आदर्श और उपयुक्त समाधान है। सहकारी खेती न केवल खेती की लागत को कम करती है, बल्कि उत्पाद बिक्री के समय बेहतर कीमतों पर मोलभाव करने के अवसर भी प्रदान करती है। यह खाद्य सुरक्षा को बढ़ाकर ग्रामीण अर्थव्यवस्थाओं और किसानों की आर्थिक स्थिति को मजबूत करती है।
सहकारी एवं सहकारी खेती क्या है?
सहकारी खेती के महत्व को समझने के लिए, पहले 'सहकारी' और 'सहकारी खेती' के मूल सिद्धांतों को समझना आवश्यक है:
सहकारी (Cooperative)
पारस्परिक सहायता: सभी सदस्य मिलकर सामान्य लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए आपसी सहयोग करते हैं, जिससे सामूहिक रूप से खेती की चुनौतियों का समाधान होता है और उत्पादकता बढ़ती है।
साझा स्वामित्व और संचालन: खेती या संगठन का स्वामित्व और संचालन सभी सदस्यों द्वारा संयुक्त रूप से किया जाता है। इससे सभी सदस्यों की भागीदारी सुनिश्चित होती है और लाभ को सभी के बीच समान रूप से साझा किया जाता है।
सहकारी खेती (Cooperative Farming)
सहकारी खेती मुख्य रूप से तीन मानकों पर आधारित होती है:
खेती का स्वामित्व: प्रत्येक भाग लेने वाले सदस्य को खेती का स्वामित्व प्राप्त होता है, जिससे सभी सदस्यों को समान रूप से इसका लाभ मिलता है।
संचालन और प्रबंधन: खेती का संचालन और प्रबंधन सभी सदस्यों द्वारा सामूहिक रूप से किया जाता है, जिससे निर्णय लेने में सहयोग और पारदर्शिता सुनिश्चित होती है।
लाभ का समान वितरण: कुल लाभ को सभी सदस्यों के बीच समान रूप से बाँटा जाता है, जिससे प्रत्येक सदस्य को उसके योगदान के अनुरूप उचित हिस्सा मिलता है।
सहकारी खेती का अर्थ है किसानों का एकजुट होकर सामान्य चुनौतियों का समाधान करना और पारस्परिक लाभ के लिए संयुक्त रूप से खेती करना। यह एक ऐसी कृषि पद्धति है, जिसमें किसान स्वेच्छा से अपनी भूमि, श्रम, पूंजी, और ज्ञान जैसे संसाधनों को एकत्रित करते हैं ताकि सामूहिक लाभ प्राप्त हो, जो व्यक्तिगत रूप से हासिल करना कठिन होता है। यह प्रणाली सामूहिक जिम्मेदारी और लाभ साझाकरण पर आधारित है, जो किसानों के बीच एकता और आर्थिक स्थिरता को बढ़ावा देती है।
सहकारी खेती के आर्थिक लाभ
सहकारी खेती छोटे और सीमांत किसानों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने का एक शक्तिशाली माध्यम है। इसके प्रमुख आर्थिक लाभ निम्नलिखित हैं:
मोलभाव करने में सक्षम: सहकारी खेती किसानों को मोलभाव करने की मजबूत स्थिति प्रदान करती है। संगठित होकर बीज, उर्वरक और उपकरण खरीदने या अपने उत्पाद बेचने से, वे विक्रेताओं और थोक खरीदारों के साथ बेहतर शर्तें प्राप्त कर सकते हैं। इससे उन्हें उचित मूल्य मिलता है, जिससे लागत कम होती है और लाभ बढ़ता है।
राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाजारों की उपलब्धता: एकजुट होकर किसान अपने उत्पादों को सामूहिक विपणन के माध्यम से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाजारों में बेच सकते हैं। इससे उनकी स्थानीय बिचौलियों पर निर्भरता कम होती है, और उनके उत्पादों का उचित मूल्य निर्धारित होता है, जिससे वे बड़े बाजारों तक पहुँचकर बेहतर व्यापारिक अवसर प्राप्त कर पाते हैं।
लागत में कमी: सहकारी खेती में संसाधनों और जिम्मेदारियों का सामूहिक बंटवारा होता है। खेती की कुल लागत सभी सदस्यों के बीच समान रूप से बाँटी जाती है, जिससे प्रत्येक किसान पर आर्थिक बोझ कम होता है। इस प्रणाली से कम लागत में कुशल खेती संभव हो पाती है।
वित्तीय सहायता के लाभ: सामूहिक रूप से खेती करने पर किसानों को विभिन्न स्रोतों से आसानी से कर्ज प्राप्त हो जाता है। इस कर्ज का उपयोग वे बीज, खाद, उन्नत यंत्रों, भूमि सुधार और फसल विविधीकरण में निवेश के लिए कर सकते हैं, जिससे खेती की उत्पादकता और आय बढ़ती है।
जोखिम प्रबंधन: प्राकृतिक आपदाओं और बाजार के उतार-चढ़ाव से उत्पन्न जोखिमों को सहकारी खेती में कम किया जाता है। हानि की स्थिति में, वह सभी किसानों के बीच बाँट दी जाती है, जिससे प्रत्येक किसान पर व्यक्तिगत प्रभाव कम होता है। इसके अलावा, समूह द्वारा फसलों का बीमा करवाना आर्थिक सुरक्षा प्रदान करता है।
सहकारी खेती के सामाजिक लाभ
सहकारी खेती केवल आर्थिक विकास तक सीमित नहीं है, बल्कि यह ग्रामीण समुदायों में सामाजिक और पर्यावरणीय स्थिरता को भी सुनिश्चित करती है।
सामुदायिक विकास एवं सामाजिक सामंजस्य: सहकारी खेती में विभिन्न वर्गों और अनुभवों वाले किसान एक साथ मिलकर काम करते हैं। इससे उनके बीच विश्वास, सहयोग और सामूहिक निर्णय लेने की क्षमता विकसित होती है। यह सामाजिक एकता को बढ़ावा देता है और ग्रामीण स्तर पर सरकारी योजनाओं को सफल बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देता है।
ज्ञान और कौशल विकास: सहकारी खेती में सभी भागीदार किसानों की खेती एक एकीकृत इकाई के रूप में कार्य करती है। खेती के सभी क्षेत्रों (जैसे मिट्टी परीक्षण, कीट प्रबंधन, खाद प्रबंधन, सिंचाई प्रबंधन आदि) का प्रभावी प्रबंधन सुनिश्चित करने के लिए नियमित प्रशिक्षण, कार्यशालाएँ, क्षेत्र भ्रमण और समूह चर्चाएँ आयोजित की जाती हैं। इससे किसानों के ज्ञान और कौशल का निरंतर विकास होता है।
रोज़गार और गरीबी उन्मूलन: यह प्रणाली ग्रामीण बेरोज़गारी को कम करने और आजीविका में सुधार लाने के लिए एक प्रभावी तंत्र है। यह फसल विविधीकरण और मूल्य संवर्धन को बढ़ावा देती है, जिससे प्रसंस्करण, पैकेजिंग, विपणन, और भंडारण जैसे कार्यों में नए रोज़गार के अवसर सृजित होते हैं। इसके अतिरिक्त, डेयरी फार्मिंग, मुर्गी पालन, मत्स्य पालन आदि को भी प्रोत्साहन मिलता है, जिससे युवाओं और महिलाओं को पूर्णकालिक और अंशकालिक रोज़गार प्राप्त होते हैं।
पर्यावरण संवर्धन: सहकारी खेती पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रभावी ढंग से कार्य करती है। इस प्रणाली में सामूहिक रूप से जैविक खेती, जल संरक्षण, फसल चक्र, समन्वित कीट और रोग प्रबंधन, जैविक खाद, और जैविक कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है। ये प्रथाएँ पर्यावरण के अनुकूल होती हैं और मिट्टी, जल, और जैव विविधता की रक्षा कर टिकाऊ कृषि को बढ़ावा देती हैं।
उत्तराखंड के संदर्भ में महत्व
उत्तराखंड के छोटे और बिखरे जोत वाले किसानों के लिए सहकारी खेती एक वरदान साबित हो सकती है। यह सामूहिक रूप से पहाड़ी कृषि की चुनौतियों जैसे कि सीमित सिंचाई, जंगली जानवरों का खतरा, और उन्नत कृषि उपकरणों की कमी का सामना करने में मदद कर सकती है। सामूहिक प्रयास से किसान उच्च मूल्य वाली बागवानी और औषधीय पौधों की खेती पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं, जिससे उनकी आय में उल्लेखनीय वृद्धि होगी।





