आखिर उत्तराखण्ड ओर हिमाचल प्रदेश में आपदाओं का कहर क्यों

उत्तराखण्ड ओर हिमाचल में प्राकृतिक आपदाओं के कारण ओर निदान क्या हैं,
खबर शेयर करें:

 आखिर उत्तराखण्ड ओर हिमाचल प्रदेश में आपदाओं का कहर क्यों।

“अनियंत्रित विकास के नाम पर काटे जा रहे पेड़ और पहाड़ के साथ खनन के पट्टे से अनियंत्रित सामग्री का उठान तो कारण नही।"

उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे पर्वतीय राज्य प्राकृतिक सौंदर्य और जैव-विविधता से समृद्ध हैं, लेकिन पिछले कुछ दशकों से यहाँ प्राकृतिक आपदाओं—भूस्खलन, बादल फटना, अचानक बाढ़, और भू-कटाव—की घटनाएँ तेजी से बढ़ी हैं। इन आपदाओं के पीछे केवल जलवायु परिवर्तन (Climate Change) ही जिम्मेदार नहीं है, बल्कि मानव-निर्मित विकास मॉडल और अवैज्ञानिक हस्तक्षेप भी एक बड़ा कारण हैं।

उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे हिमालयी राज्यों में हाल के वर्षों में बाढ़, भूस्खलन, बादल फटने और हिमस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता और आवृत्ति में वृद्धि देखी गई है। केदारनाथ त्रासदी (2013) से लेकर हाल ही में शिमला और चमोली में आई विपदाएँ एक गंभीर प्रश्न खड़ा करती हैं.   2025 में ही, जुलाई और अगस्त में इन क्षेत्रों में कई घटनाएं हुईं, जैसे कि उत्तराखंड के उत्तरकाशी में फ्लैश फ्लड्स जिसमें कम से कम 4 लोग मारे गए और दर्जनों लापता हो गए। 

  आज ही, 29 अगस्त 2025 को, उत्तराखंड में बादल फटने से 8 लोगों की मौत हो गई और दर्जनों लापता हैं। हिमाचल प्रदेश में भी 2025 में बाढ़ और भूस्खलन से व्यापक क्षति हुई है। 

  ये आपदाएं न केवल मानवीय जीवन और संपत्ति को नुकसान पहुंचाती हैं, बल्कि पर्यावरणीय संतुलन को भी बिगाड़ती हैं। एक वैज्ञानिक के रूप में, मैं इन आपदाओं के कारणों, उनके स्रोतों और संभावित समाधानों पर आधारित विश्लेषण प्रस्तुत कर रहा हूं, जो वैज्ञानिक अध्ययनों और हालिया डेटा पर आधारित है।

अभी सभी के जेहन में एक ही सवाल है कि आखिर हिमाचल ओर उत्तराखण्ड में ही बरसात का कहर क्यो हर वर्ष बढ़ रहा है।   इसका कारण अनियंत्रित विकास  सबसे बड़ा कारण है।

आपदाओं के बढ़ने के मूल कारण: प्रकृति और मानव का अन्तर्सम्बन्ध

विज्ञान यह स्पष्ट करता है कि ये आपदाएँ केवल 'प्राकृतिक' नहीं हैं, बल्कि इन्हें 'मानव-प्रेरित' (anthropogenic) या 'प्राकृतिक-तकनीकी' (na-tech) आपदाएँ कहना अधिक उचित होगा।


प्राकृतिक और जलवायु परिवर्तन के कारण

जलवायु परिवर्तन हिमालयी क्षेत्र में आपदाओं को बढ़ावा दे रहा है। बढ़ते तापमान से ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना हो रहा है, जिससे ग्लेशियल झीलें बन रही हैं और इनके फटने (GLOF) से बाढ़ आ रही है 2023 में सिक्किम में GLOF से हुई तबाही इसका उदाहरण है, जो जलवायु परिवर्तन से जुड़ी है। उत्तराखंड में 2013 की बाढ़ को बदलते मानसून पैटर्न से जोड़ा गया, जिसमें असामान्य वर्षा ने विनाश मचाया।

 वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन से वर्षा की तीव्रता बढ़ रही है, जिससे क्लाउडबर्स्ट और फ्लैश फ्लड्स अधिक हो रहे हैं। हिमालय में बर्फबारी और वर्षा के पैटर्न में बदलाव से पहाड़ कमजोर हो रहे हैं, जिससे भूस्खलन का खतरा बढ़ गया है। कुल मिलाकर, जलवायु परिवर्तन इन आपदाओं को 20-50% तक बढ़ा रहा है, खासकर उत्तर भारत में । 

जलवायु परिवर्तन एक गेम-चेंजर (game-changer) की भूमिका निभा रहा है। यह प्राकृतिक खतरों के जोखिम को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहा है।

ग्लोबल वार्मिंग और असंतुलित वर्षा – वैश्विक तापमान वृद्धि के कारण मानसून अधिक अराजक और तीव्र हो गया है। हिमालयी क्षेत्र में वर्षा का पैटर्न बदल गया है। कभी महीनों तक फैली रहने वाली हल्की बारिश अब अचानक कुछ घंटों में तेज बारिश के रूप में हो रही है, जिसे बादल फटना या फ्लैश फ्लड कहते हैं।

हिमनदों का पिघलना – बढ़ते तापमान के कारण ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं और पतले हो रहे हैं। और झीलों का आकार बढ़ रहा है, इससे ग्लेशियर झीलों (जैसे चोराबारी झील) का निर्माण होता है। जिससे अचानक ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOF) की घटनाएँ होती हैं।

भूकंपीय संवेदनशीलता – हिमालय एक युवा पर्वत श्रृंखला है, भूगर्भीय रूप से अस्थिर है। छोटी-छोटी हलचलें भी भूस्खलन को जन्म देती हैं।

बादल फटने (Cloudbursts) की बारंबारता: जलवायु मॉडल यह संकेत देते हैं कि गर्म वातावरण में अधिक नमी धारण करने की क्षमता बढ़ जाती है, जो cloudburst जैसी अतिवृष्टि (extreme precipitation) की घटनाओं के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ बनाती है।


मानवजनित विकास: भेद्यता का सृजन (Creating Vulnerability)

मानवीय गतिविधियां इन आपदाओं को और घातक बना रही हैं। वनों की कटाई, अनियोजित निर्माण, हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स, खनन और पर्यटन विकास ने पर्यावरण को असंतुलित किया है। उत्तराखंड और हिमाचल में चार-लेन राजमार्गों का निर्माण, अत्यधिक पर्यटन और बांधों की अधिकता से मिट्टी का कटाव बढ़ा है उदाहरण के लिए, 2021 में चमोली में हिमस्खलन हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स से जुड़ा था। वनों की कटाई से जलवायु परिवर्तन भी तेज होता है, जो भूस्खलन को बढ़ावा देता है। "कैंसरस टूरिज्म" जैसी गतिविधियां पर्यावरणीय संतुलन बिगाड़ रही हैं। 2023 की उत्तरी भारत की बाढ़ में भूमि उपयोग में बदलाव और वनों की कटाई को प्रमुख कारक माना गया। इसलिए, ये आपदाएं केवल जलवायु परिवर्तन से नहीं, बल्कि मानवीय विकास की अनियोजित गति से भी हो रही हैं – दोनों का संयोजन उन्हें और विनाशकारी बनाता है।

जलवायु परिवर्तन जोखिम पैदा करता है, लेकिन मानवीय गतिविधियाँ ही उस जोखिम को आपदा में बदलती हैं।

अवैज्ञानिक निर्माण और भू-उपयोग में परिवर्तन: पहाड़ों की संवेदनशील भू-विज्ञान (geology) को नजरअंदाज करते हुए बड़े पैमाने पर सड़कें, सुरंगें (जैसे चारधाम परियोजना), बाँध और अनियंत्रित पर्यटन  का निर्माण किया जा रहा है। ढलानों (slopes) को काटना, विस्फोट करना और नदियों के प्राकृतिक मार्ग (floodplains) में निर्माण करना भू-स्थिरता (slope stability) को गंभीर रूप से कमजोर करता है।

वनों की कटाई- जड़ प्रणालियाँ मिट्टी को बाँधकर रखती हैं और जल के अवशोषण में सहायक होती हैं। बड़े पैमाने पर वनों की कटाई से मिट्टी का कटाव बढ़ता है और भूस्खलन की संभावना बढ़ जाती है। यह वर्षा के जल को जमीन के अंदर रिसने के बजाय तेजी से नीचे बहने के लिए मजबूर करता है, जिससे नदियों का जलस्तर अचानक बढ़ जाता है।

जनसंख्या दबाव: बढ़ती आबादी और पर्यटन के कारण खतरनाक और संवेदनशील क्षेत्रों (जैसे नदी किनारे या ढलानों पर) में बस्तियाँ और होटल बस गए हैं, जो सीधे तौर पर खतरे के शिकार हैं।

अनियंत्रित निर्माण और सड़कें – बिना भूगर्भीय अध्ययन किए, पहाड़ों को काटकर चौड़ी सड़कें, होटल और टाउनशिप बनाए जा रहे हैं। इससे पहाड़ की स्थिरता कमजोर होती है।

नदियों के किनारे अतिक्रमण – नदियों के प्राकृतिक बहाव को रोककर पुल, रिसॉर्ट और बस्तियाँ बसाने से बाढ़ का खतरा कई गुना बढ़ जाता है।

हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट – बड़े-बड़े बांध और सुरंग परियोजनाएँ नदियों और पहाड़ों की प्राकृतिक संरचना को नुकसान पहुंचा रही हैं।

भौगोलिक सर्वेक्षण एक दिखावा -  भौगोलिक विषमताओं के चलते संसाधनो के विकास हेतु हुए भौगोलिक सर्वेक्षण सिर्फ उस योजना के विकास के लिए किए गए जिस योजना का विकास किया जाना है इसके दुष्परिणाम क्या होंगे पर कभी सर्वेक्षण नही हुआ। इसका जीता जागता उदाहरण ऋषिकेश कर्णप्रयाग रेल लाइन के लिए बन रही सुरंगों के आसपास के गाँव मे प्राकृतिक पेयजल स्रोतों का शत प्रतिशत सूखना ओर मकानों के धंसना ये खबरें सभी ने पढ़ी। ईमानदारी से देखा जाए तो जब यह रेल विकास का प्रोजेक्ट तैयार हुआ तो इस प्रोजेक्ट में क्या ये दुष्परिणाम पहले से ही वर्णित थे यदि थे तो ऐसे प्रोजेक्ट को क्यो लागू किया गया यदि नही थे तो इनपर ध्यान क्यो नही दिया गया।

Carrying capacity- पर्वतीय प्रदेश विशेषकर उत्तराखण्ड में  पर्यटन के नाम पर क्षमता से अधिक पर्यटकों का आना जाना,  सड़कों पर गाड़ियों का दबाब लगातार बढ़ता जा रहा है जिसके लिए कोई ठोस नीति अभी तक नही बन पाई है विशेषकर बद्रीनाथ ओर केदारनाथ धाम की यात्रा को लेकर। बद्रीनाथ ओर केदारनाथ में बने 5 मंजिला होटल क्या उस पारिस्थितिकी के लिए अनुकूल हैं?क्या पूर्व समय मे इतनी भारी भरकम भवन वो भी कंक्रीट के ओर इतनी भीड़ ओर गाड़ियां थी जबाब है नही। पहले पैदल यात्राएं होती थी पहाड़ों के अनुरूप मकान बने होते थे जो आज कंक्रीट के बन रहे क्या यह विचारणीय नही है।


समाधान: कैसे रोका जा सकता है यह कहर?

इन आपदाओं से बचाव संभव है, यदि हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं। समाधान दो स्तरों पर हैं: अल्पकालिक (तत्काल बचाव) और दीर्घकालिक (रोकथाम)।

तत्काल उपाय : 

1. जियो-इंजीनियरिंग और पारिस्थितिकी-आधारित समाधान (Eco-based Solutions):

नदी क्षेत्र प्रबंधन: नदियों के natural floodplains को मुक्त करना और उन पर अतिक्रमण रोकना अत्यावश्यक है।

स्लोप स्थिरीकरण: भूस्खलन-प्रवण क्षेत्रों में वैज्ञानिक तरीकों (जैसे जियो-टेक्सटाइल, ड्रेनेज सिस्टम) से ढलानों को मजबूत करना। पहाड़ों में विकास योजनाएँ स्थानीय पारिस्थितिकी और भूगर्भीय क्षमता को ध्यान में रखकर बननी चाहिए।

स्मार्ट इंफ्रास्ट्रक्चर – सड़क और भवन निर्माण में भूस्खलन-रोधी तकनीक और पारंपरिक पहाड़ी वास्तुकला को बढ़ावा देना होगा।

वनीकरण: स्थानीय प्रजातियों के साथ बड़े पैमाने पर पुनर्वनरोपण (afforestation) कार्यक्रम चलाना, विशेष रूप से ऊपरी जलग्रहण क्षेत्रों में।

अर्ली वॉर्निंग सिस्टम: GLOF और भूस्खलन के लिए उन्नत पूर्वानुमान प्रणाली विकसित करें, जो कैस्केडिंग जोखिमों को ट्रैक करे। हाई-रेजोल्यूशन मौसम मॉडल क्लाउडबर्स्ट की भविष्यवाणी कर सकते हैं।

आपदा प्रबंधन योजनाएं: राज्य सरकारों को जोखिम मानचित्रण पर आधारित योजनाएं लागू करनी चाहिए, जैसे कि हिमाचल में 45% क्षेत्र को उच्च जोखिम वाला घोषित कर मिटिगेशन स्ट्रैटेजी अपनाना।

साइंटिफिक टाउन प्लानिंग – नदियों, झीलों और संवेदनशील ढलानों के पास निर्माण कार्य पूरी तरह प्रतिबंधित होना चाहिए।

हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट पर पुनर्विचार – बड़े बांधों की जगह छोटे और पर्यावरण-अनुकूल प्रोजेक्ट विकसित करना अधिक सुरक्षित होगा।

2. दीर्घकालिक परिवर्तन : 

सस्टेनेबल विकास: अनियोजित निर्माण पर रोक लगाएं, हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स की पर्यावरणीय मूल्यांकन सख्त करें। वनों की बहाली और बायोइंजीनियरिंग से भूस्खलन कम किया जा सकता है।

समुदाय आधारित रणनीतियां: स्थानीय समुदायों को शामिल कर मैंग्रोव जैसी प्राकृतिक बफर बहाल करें, हालांकि हिमालय में इसे अनुकूलित करें। उत्तराखंड डिजास्टर प्रिपेयर्डनेस प्रोजेक्ट जैसी पहलें भूमि बहाली पर फोकस करती हैं।

समुदाय आधारित आपदा प्रबंधन – स्थानीय लोगों को आपदा पूर्व चेतावनी प्रणाली, आपदा प्रबंधन और सुरक्षित पुनर्वास की ट्रेनिंग देना।

नीतिगत बदलाव: पर्यावरण कानूनों को सख्ती से लागू करें, जैसे कि गुजरात और उत्तराखंड में आपदा प्रबंधन मंत्रालय। जंगल आग प्रबंधन के लिए मिटिगेशन प्रोजेक्ट्स 144 जिलों में लागू किए जा सकते हैं।

अधिक मजबूत निर्माण: मजबूत इमारतें बनाएं जो क्षति कम करें। हिमाचल और उत्तराखंड की सरकारों को लैंडस्लाइड जोखिम कम करने के लिए व्यापक एक्शन प्लान अपनाना चाहिए।

अन्य सुझाव

वैज्ञानिक योजना और विनियमन:

कार्य-विभाजन (Carrying Capacity अध्ययन): हर घाटी और शहर की एक "वहन क्षमता" होती है। इससे अधिक निर्माण पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना होगा।

लैंड-यूज प्लानिंग: उच्च-रिज़ॉल्यूशन वाली भूवैज्ञानिक मानचित्रण (mapping) के आधार पर भूमि का वर्गीकरण करना और खतरनाक क्षेत्रों में किसी भी तरह के निर्माण पर प्रतिबंध लगाना।

 नीतिगत परिवर्तन और सामुदायिक भागीदारी:

'भूमि' केंद्रित नहीं, 'लोग' केंद्रित विकास: विकास का लक्ष्य कंक्रीट के infrastructure का निर्माण नहीं, बल्कि स्थानीय समुदायों की लचीलापन बढ़ाना होना चाहिए।

जागरूकता और तैयारी: स्थानीय समुदायों को आपदा प्रबंधन प्रशिक्षण देना और उन्हें नियोजन प्रक्रिया का हिस्सा बनाना।

न्यायसंगत पर्यटन: पर्यटन पर मात्रा नहीं, बल्कि गुणवत्ता पर ध्यान देना और इसके पर्यावरणीय प्रभाव को सीमित करना।

उत्तराखंड और हिमाचल में आपदाएं जलवायु परिवर्तन और मानवीय विकास दोनों से हो रही हैं, प्रकृति के साथ युद्ध करके विकास नहीं किया जा सकता। आवश्यकता इस बात की है कि हम 'विकास' की अपनी परिभाषा बदलें और एक ऐसा मॉडल अपनाएँ जो पारिस्थितिकी के अनुकूल (ecologically compatible) हो, हमें पर्यावरण संरक्षण को विकास का हिस्सा बनाना होगा, ताकि हिमालय की नाजुक पारिस्थितिकी बची रहे। वैज्ञानिक अनुसंधान और नीति कार्यान्वयन से हम भविष्य की पीढ़ियों को सुरक्षित कर सकते हैं।

खबर पर प्रतिक्रिया दें 👇
खबर शेयर करें:

हमारे व्हाट्सएप्प ग्रुप से जुड़ें-

WhatsApp पर हमें खबरें भेजने व हमारी सभी खबरों को पढ़ने के लिए यहां लिंक पर क्लिक करें -

यहां क्लिक करें----->