विजयपाल सिंह नेगी/हिमालय की आवाज़
पहाड़ों में आजीविका का साधन बन सकता है - नींबू की खेती
देश भर में नीबू वर्गीय फलों की बागवानी व्यापक रूप से की जाती है। भारत में केले और आम के बाद नीबू का तीसरा स्थान है। इन फलों को भारत में आंध्र प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तराखंड, बिहार, असम, राजस्थान, मध्यप्रदेश और अन्य राज्यों में सफलतापूर्वक उगाया जाता है। पूरे साल इनकी उपलब्धता के कारण ये भारत में सबसे लोकप्रिय फल है। नीबूवर्गीय फल आर्थिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण है।
बागवानी की तकनीक जलवायु एवं मृदा-
नीबूवर्गीय फलों की बागवानी उपोष्ण तथा उष्णीय दोनो प्रकार की जलवायु में अच्छी तरह से की जा सकती है। इस वर्ग के फलों की सामान्यतया बागवानी दोमट तथा बलुई दोमट मिट्टी जहां जल निकास का उत्तम प्रबंधन हो एवं पीएच 5.5 से 7.2 तक हो उपयुक्त है। अच्छी बढ़वार तथा पैदावार के लिए मृदा की गहराई 4 फीट से अधिक होनी चाहिए। सिंचाई के जल में 750 मि0ग्रा0 से अधिक लवण होने पर इन किस्मों को लवण अवरोधी मूलवृत जैसे x639 या x-6 आरएलसी पर लगाकर रोपण करना चाहिए।
बाग की स्थापना-
प्रजातियों तथा किस्मों के आधार पर पंक्ति से पंक्ति तथा पौध से पौध की दूरी का निर्धारण करना चाहिए। साधारणतया कागजी नीबू, लेमन, मौसमी, ग्रेपफ्रूट तथा टेनजेरिन को 4×4 मीटर या 5×5 मीटर की दूरी पर लगाते है। पौध रोपण से पहले जून में 3x3x3 फुट आकार के गड्ढे खोद लिए जाते है। 10-15 दिनों बाद इन गड्ढो को मिट्टी तथा सड़ी हुई गोबर की खाद (1:1 के अनुपात में) भरने के बाद हल्की सिंचाई करें। इसके बाद पहली बरसात के बाद चुनी हुई किस्मों के पौधों का रोपण करना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक-
सारणी 1 के अनुसार खाद का तथा उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए। उपोष्ण जलवायु में गोबर की खाद की पूरी मात्रा का प्रयोग दिसंबर-जनवरी मेें तथा रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग दो बराबर मात्रा में बांटकर करना चाहिए। लेमन को छोड़कर सभी किस्मों में पहली खुराक मार्च में और दूसरी जुलाई-अगस्त में देना चाहिए। लेमन में उर्वरक एक बार मार्च-अप्रैल में प्रयोग करना चाहिए। उर्वरकों को प्रयोग करते समय पर्याप्त नमी होनी चाहिए। अन्यथा प्रयोग के बाद सिंचाई आवश्यक है। अगर दीमक की समस्या हो तो क्लोरोपाइरीसफॉस या नीम की खली का प्रयोग करें।
सारणी 1. खाद तथा उर्वरकों की मात्रा -
वृक्ष की आयु |
मात्रा प्रति वृक्ष |
|||
वर्ष |
गोबर की खाद (कि.ग्रा.) |
यूरिया (ग्राम) |
सिंगल सुपर फॉस्फेट (ग्राम) |
पोटेशियम सल्फेट |
1 |
20 |
220 |
625 |
150 |
2 |
25 |
350 |
625 |
300 |
3 |
30 |
500 |
1250 |
400 |
4 |
40 |
650 |
1875 |
800 |
5 या अधिक |
50 |
750 |
2000 |
1000 |
सिंचाई-
उपरोक्त सभी प्रजातियों का प्रतिरोपण करनें के तुरंत बाद बाग की सिंचाई करें। पौधों की सिंचाई उनके आस-पास थाला पद्धत्ति में गर्मियों के मौसम में हर 10 या 15 दिनों के अंतर पर और सर्दियों में मौसम में प्रति 4 सप्ताह बाद सिंचाई करनी चाहिए। सिंचाई करते समय ध्यान रखें कि सिंचाई का पानी पेड़ के मुख्य तने के संपर्क में न आए। इसके लिए मुख्य तने के आसपास मिट्टी डाल देनी चाहिए। उपोष्ण जलवायु में अच्छे फूलन के लिए फूल आने से पहले तथा इसके दौरान सिंचाई न करें।
निराई-गुुड़ाई-
पौधों में अच्छी वृद्धि तथा बढ़वार के लिए उपरोक्त प्रजातियां/किस्मों के बागों की गहरी जुताई नही करनी चाहिए। इन पेड़ों की जड़े जमीन की उपरी सतह में रहती है। और गहरी जुताई करने से उनके नष्ट हो जाने का खतरा रहता है। बागों में खरपतवारों की
प्रमुख कीट एवं प्रबंधन-
माहू यह कीट उपरोक्त सभी प्रजातियों की पत्तियों और टहनियों की कोशिका से रस चूस लेता है। कीटो द्वारा कोशिका का रस चूस लिए जाने के कारण पत्तियां, कलियां और फूल मुरझा जाते है। यह कीट हमेशा फूल आने के समय आक्रमण करता है। इसके साथ-साथ यह कीट एक किस्म के विषाणुओं को भी फैलाता है, जिससे नीबू की पैदावार कम होती है।
इस कीट की रोकथाम के लिए 15 मि.ली. मैलाथियान को 10 लीटर पानी में बने घोल का छिड़काव फूल आने से पहले करनी चाहिए। इसके अलावा फोरेट 10 जी का प्रयोग मृदा में किया जा सकता है।
पर्णसुरंगी-
यह कीट मीठी नांरगी, नीबू, ग्रेपफ्रूट आदि सभी पौधों को नुकसान पहुंचाता हैै । यह हमेशा नई पत्तियों के निकलते समय आक्रमण करता है। यह कीट बाग के पेड़ो के अतिरिक्त नर्सरी के पौधों को भी नुकसान पहुंचता है। इसकी इल्लियां पत्तियों मेें टेढ़ी-मेढ़ी सुरंग बनाती है। जब पेड़ों में नये फुटाव हो रहे हों तब मोनोक्रोटोफॉस 3.5 मि.ली. प्रति 10 लीटर पानी में घोल बनाकर दो छिड़काव 15 दिनों के अंतर पर करें।
मिलीबग-
ये कीट कोमल शाखाओं एवं पुष्पक्रम आदि पर चिपक कर रस चूसते है, जिससे फूल तथा फल गिरनें लगते है। इनकी रोकथाम के लिए कार्बोसल्फान ( 5 मि.ली. प्रति 10 लीटर पानी) के घोल का छिड़काव करना चाहिए। रोकथाम की जाए तो ज्यादा अच्छा है। पौधों के थालों में गहराई करके खरपतरवार निकाल देने चाहिए और पौधों की पंक्तियों में बीच में ग्लाइफोसेट 5 मि.ली/लीटर का घोल बनाकर छिड़काव करें।
रोग फाइटोप्थोरा सड़न-
यह रोग उपरोक्त सभी किस्मों को प्रभावित करता है। जलभराव होने के कारण यह रोग अधिक फैलता है। त्वचा का सड़ना, जड़ों का सड़ना, अत्यधिक गोंद निकलना तथा पौधों का सूखना इस रोग के मुख्य लक्षण है।
जहां पानी का भराव अधिक होता है, वहां यह रोग अधिक होता है, पौधशाला को फाइटोप्थोरा रहित जल निकास, तनो के चारों तरफ 60 से.मी. ऊॅंचाई क बोर्डेक्स मिश्रण का लेप लगाने, अवरोधी मूलवृंत पर 30 से.मी. ऊॅंचाई पर कलिकायन करने से रोग को फैलाने से रोका जा सकता है। रोग फैलने से रोकन के लिए बोर्डो पेस्ट (मि.ग्रा. 1 मि.ग्रा. कॉपर सल्फेट $ 10 लीटर पानी) से पौधों की 2-3 फीट ऊॅंचाई तक पुताई वर्ष में दो बार अवश्य करें। रोग का संक्रमण होने पर रिडोमिल गोल्ड (2.5 ग्रा./लीटर) पानी का घोल बनाकर पेड़ के थालों में भरें तथा इसी घोल का पर्णीय छिड़काव करें।
फलों की तुड़ाई-
उपरोक्त किस्मों की तुड़ाई अलग-अलग समय पर की जाती है। लेमन तथा कागजी नीबू 150-180 दिनो में पककर तैयार हो जाते है। फलों को तोडते समय इस बात की विशेष सावधानी बरतनी होती है कि फलों की तुड़ाई बाजार की मांग तथा प्रचलित फलों के मूल्य को ध्यान में रखकर करनी चाहिए। कागजी नीबू एवं लेमन के फल हल्के पीले होने पर तोड़ने चाहिए।
सारणी 2- वर्ष भर फलन लेने हेतु नीबूवर्गीय फलों के लिए उपयुक्त फसलें एवं किस्में-
फसल |
किस्म |
गुण |
तुड़ाई का समय |
कागजी नीबू |
पूसा उदित |
मध्यम आकार, गोलाकार, अधिक रसीले तथा ज्यादा खटासयुक्त फल, वर्ष में दो बार फलन देने वाली किस्म |
फरवरी-मार्च, |
पूसा अभिनव |
मध्यम आकार के अधिक |
मार्च-अप्रैल, |
|
नीब (लेमन) |
कागजी कलां |
गोलाकार, अधिक रसीले तथा मध्यम खटासयुक्त, अधिक उपज देने वाली किस्म |
जुलाई-अगस्त, |
पंत लेमन |
अधिक फलदार, गुच्छे में फलन, रसीले, मध्यम खटास,अचार के लिए उपयुक्त किस्म |
जुलाई-अगस्त, |
नींबू का नासूर – केंकर रोग-
यह मुख्यतया कागजी नीबू तथा ग्रेपफु्रट के पौधों और फलों को प्रभावित करता है। बरसात के मौसम में यह रोग आमतौर पर दिखाई देता है। यह पत्तियों, टहनियों, कांटो और फलों को प्रभावित करता है। सबसे पहले पौधों के उक्त भागों में छोटे-छोटे हल्के पीले रंग के धब्बे पड़ जातें है।
अंततः ये धब्बे उठे हुए और खुरदरे हो जाते है। इस रोग की रोकथाम हेतु मुख्यतः प्रभावित शाखाओं को काटकर कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 3 ग्राम प्रति लीटर का घोल बनाकर छिड़काव करें। इसके अलावा स्ट्रेप्टोसाइक्लीन नाम रसायन की एक ग्राम मात्रा को 50 लीटर पानी में घोलकर 3 व 4 बार छिड़कने से अथवा एक ग्राम पानी की खली को 20 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव से भी इस रोग से छुटकारा पाया जा सकता है।