सीसीएल के जाल में फंसते समूह व संगठन के सदस्य

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श्रृंखला भाग 2 - आखिर कब खुलेंगे रोजगार सृजन के लिए बने भवनों के ताले से आगे

सीसीएल के जाल में फंसते समूह व संगठन के सदस्य।

कर्ज लेकर स्वरोजगार करने की चाह को आखिर पंख क्यो नही लगते।

योजनावीरों के कागजी घोडों के अनुसार परियोजनाओं को सफलतम क्यो दर्शाया जाता है यदि ऐसे है तो पहाड़ में बंजर होते खेत ओर गावँ पलायन से क्यो जूझ रहे।

परियोजनाओं को किस तरह से क्रियान्वित किया जा सकता है कि गाइडलाइंस को तैयार करते समय धरातलीय अनुभव का न होने के चलते परियोजनाओं के द्वारा संचालित गतिविधियों से आखिर किसानों की आय दुगनी न होना या किसान की स्थिति का जस का तस रहना इस प्रश्न का उत्तर जटिलताओं को लिए संभावित उपायों का न होना दिखाता है।

अधिकतर देखने मे आता है कि परियोजनाओं का मुख्य उद्देश्य लघु व सीमान्त किसानों की आजीविका संवर्धन, खाद्य सुरक्षा श्रृंखला को मजबूत करने के उपाय के लिए समूहों का गठन, सहकारिताओं या संगठनों का गठन करके आय अर्जन की गतिविधियों का संचालन करना होता है जिसके लिए तमाम तरह के कार्यक्रमों का आयोजन जिसमें मुख्य रूप से प्रशिक्षण व इनपुट सप्लाई पर फोकस किया जाता है और यही से ही खेल शुरू होता है जिससे परियोजना अपने उद्देश्य से भटक कर उस मुकाम तक पहुंचती है कि कागजी घोडों में सवार होकर अपने उच्चतम शिखर को छूकर फुर हो जाती है और लघु व सीमांत किसान आसमान को ताकता रह जाता है।


इनपुट खरीद से पहले समूहों की व्यापारिक गतिविधियों के लिए व्यापार योजना (Business Plan) को इस तरह तैयार किया जाता है कि वैल्यू चेन बनाने वाले के समझ ही नही आता कि वैल्यू चेन क्या बला है तो आम किसान जो समस्याओं से जूझ रहा होता है उसे लगता कि नए बीज मिल रहे लगा लो पर जब इन बीजों से फसल का उत्पादन होता तो ढाक के तीन पात की स्थिति बन जाती है और कभी कभी बीज का जमाव ही नही होता यह ऐसे परिस्थिति होती है जब सवाल उठते हैं पर वाचाल शक्ति और कागजी घोड़े दौड़ाने के माहिर लोग प्रयोग का नाम अच्छा था और जगह यहां उपयुक्त नही हुआ देख रहे थे कहकर किसान को दिलासा दिला कर शांत कराया जाता है।

इसके बाद परियोजना का समय बढ़ता है जमीन की हकीकत कुछ और कागजों की कुछ होती है। अब चलता है दूसरा खेल किसान द्वारा तैयार उत्पाद को बाजार में नए कलेवर के साथ उतारने के लिए। संकल्प से सिद्धि के बड़े बड़े होर्डिंग व मेलों का आयोजन करके, स्टॉल लगाकर, वाह वाही करके कर्तव्य की इतिश्री ओर फ़ोटो वीडियो शूट करके रिपोर्ट तैयार करके प्रस्तुत करके खुद की जय जयकार करवाने की जद्दोजहद।

इसके बाद अगला चरण होता है छोटे और सीमांत किसानों को उनकी जीविका संवर्धन ओर जीविकोपार्जन में नए प्रयोग की। किसान को केस क्रेडिट लिमिट (CCL) से जोड़ने का लक्ष्य, जो पूर्व निर्धारित होता है। किसान यही पर मात खा जाता है और कर्ज के भंवर में डुबकी लगनी शुरू हो जाती है।  किसान पहले ही समस्या में था ऊपर से कर्ज की समस्या जो मानसिक रूप से कमजोर होकर जो कर भी रहा था, वह नए प्रयोग के चक्कर उत्पाद से भी हाथ धो बैठता है। किसान के पास जो पारंपरिक बीज था  वो नए बीज के चक्कर मे खत्म हो जाता है ओर कहानी खेत को बंजर छोड़ने के साथ मजदूर बनकर अन्यत्र पलायन करने तक सीमित हो जाती है।
 
अब समस्या होगी उन योजनावीरों को इस खबर से उनके लिए कुछ आसान से सवाल हैं जो हर बार अनुउत्तरित रह जाते हैं-
1- योजना से किसान को फायदा क्या हुआ।
2- योजना का मूल्यांकन करते समय चिन्हित स्थान का मूल्यांकन क्यों।
3- योजनाओं में इनपुट खरीद से किसान की आजीविका संवर्धित हुई या घटी यह निष्कर्ष हर समय धनात्मक क्यों रहता है।
4- संगठन तभी तक ही क्यो हांफते हुए चलते जबतक योजना या परियोजना का वरदहस्त संगठन पर रहता।
5- आजादी के बाद से या 1970 से ही मानकर चलते तो तब से उद्यान विभाग या कृषि विभाग के द्वारा कितने इनपुट दिए जा चुके हैं ओर कितनी योजना परियोजना कागजों में सफलता के साथ बन्द हो चुकी हैं तो सबसे बड़ा सवाल
(क)-  पहाड़ में खेती बंजर होने का कारण क्या है।
(ख)- रोजगार सृजन के नाम पर परियोजना द्वारा किये गए कार्यों से कितने सफलतम प्रयोग रहे कि पलायन की स्थिति बहुत कम हुई हो।
(ग)-  पारम्परिक बीजों का प्रयोग क्यो नही क्यो बीजों को बाहर से मंगाया जाता है।
(घ)- सतत ओर आय में वृद्धि का मानक क्या है ।
कई सवाल हैं जो जबाबदेह बना सकते हैं यदि इन्हें परियोजना के क्रियान्वयन में शामिल किया जाय तो कुछ न कुछ समस्याएं हल होंगी।
राज्य बनने पर आश जगी थी कि राज्य की विषम भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार बनेंगी। किन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ योजनाएं वैसे ही चल रही है जैसे उतर प्रदेश के समय में चल रही थी। राज्य के भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार योजनाओं में सुधार नहीं हुआ।
विभाग योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए कार्ययोजना तैयार करता है कार्ययोजना में उन्हीं मदों में अधिक धनराशि रखी जाती है जिसमें आसानी से संगठित /संस्थागत भ्रष्टाचार किया जा सके।
यदि विभाग /शासन को सीधे कोई सुझाव/ शिकायत भेजी जाती है तो कोई जवाब नहीं मिलता। माननीय प्रधानमंत्री जी /माननीय मुख्यमंत्री जी के समाधान पोर्टल पर सुझाव/ शिकायत अपलोड करने पर शिकायत शासन से संबंधित विभाग के निदेशक को जाती है वहां से जिला स्तरीय अधिकारियों को वहां से फील्ड स्टाफ को अन्त में जबाव मिलता है कि किसी भी कृषक द्वारा कार्यालय में कोई लिखित शिकायत दर्ज नहीं है सभी योजनाएं पारदर्शी ठंग से चल रही है।
उच्च स्तर पर योजनाओं का मूल्यांकन सिर्फ इस आधार पर होता है कि विभाग को कितना बजट आवंटित हुआ और अब तक कितना खर्च हुआ राज्य में कोई ऐसा सक्षम और ईमानदार सिस्टम नहीं दिखाई देता जो धरातल पर योजनाओं का ईमानदारी से मूल्यांकन कर योजनाओं में सुधा र ला सके।

पाठकों के लिए इस श्रृंखला का अगला अंक भाग 3 - योजना और परियोजनाओं को संचालित क्यों किया जाता है जबकि उस कार्य के लिए सक्षम विभाग हैं।



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