उत्तराखंड: विकास की मृगतृष्णा में आम जन

उत्तराखंड:जैविक खेती और पिरूल नीति,
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उत्तराखंड: विकास की मृगतृष्णा में आम जन:-धरातल पर दम तोड़ती योजनाएँ 


जिन सपनों को लेकर एक पृथक पहाड़ी राज्य की नींव रखी गई थी, वे आज भी एक मृगतृष्णा बनकर रह गए हैं। 

उत्तराखंड के रजत जयंती वर्ष (2025) की ओर बढ़ते हुए, पहाड़ी राज्य के आम जनमानस में यह गहन अनुभूति है कि राज्य गठन के 25 वर्ष बाद भी वे विकास की दौड़ में वहीं खड़े हैं जहाँ से उन्होंने शुरुआत की थी। जिन सपनों को लेकर एक पृथक पहाड़ी राज्य की नींव रखी गई थी, वे आज भी एक मृगतृष्णा बनकर रह गए हैं। यह रिपोर्ट, समाचार पत्रों, सोशल मीडिया और उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर, राज्य की ग्रामीण विकास योजनाओं की ज़मीनी हकीकत और उनके क्रियान्वयन में व्याप्त विसंगतियों का विश्लेषण करती है, विशेष रूप से जैविक खेती और पिरूल नीति जैसी प्रमुख पहलों पर ध्यान केंद्रित करते हुए।

जैविक खेती और पिरूल नीति: धरातल पर दम तोड़ती योजनाएँ

ग्रामीण विकास योजनाओं के नाम पर उत्तराखंड में पिरूल से रोजगार, पिरूल से कोयला, जैविक खाद, सोलर एनर्जी, लैमन ग्रास, जैतून का तेल, चाय बागान विकास और विशेष रूप से जैविक प्रदेश बनाने की घोषणा के साथ जैविक खेती जैसे कई शब्द सुनाई दिए हैं। इन योजनाओं को प्रचारित करने के लिए विदेश भ्रमण, विज्ञापनों पर करोड़ों का खर्च, 3/5 स्टार होटलों में गोष्ठियाँ और महंगे उपकरणों की खरीद-फरोख्त हुई। लेकिन, ज़मीन पर इसका लाभ आम किसान तक नहीं पहुँचा।

जैविक खेती की चुनौती

उत्तराखंड को जैविक प्रदेश घोषित करने का संकल्प एक दूरदर्शी कदम था, परंतु इसके क्रियान्वयन में गंभीर चुनौतियाँ आईं:

  • पारंपरिक खेती बनाम आधुनिक मार्केटिंग: किसानों को जैविक उत्पादों के लिए सही बाज़ार और उचित मूल्य नहीं मिल पाया। केवल उत्पादन बढ़ाना पर्याप्त नहीं है; एक मजबूत सप्लाई चेन, फूड प्रोसेसिंग यूनिट और एग्रीविजनैस ग्रोथ सेन्टर की स्थापना कागज़ों पर ही रही, जो छोटे और सीमांत किसानों को संगठित बाज़ार तक पहुँचाने में सहायक होते।

  • फर्जीवाड़े का बोलबाला: फर्जी प्रमाण पत्रों के आधार पर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड हासिल करने वाले गैर सरकारी संगठनों (NGO) और उनके संचालकों ने योजना के वास्तविक उद्देश्य को दूषित किया। जैविक प्रसाद वितरण योजना जैसे आकर्षक शीर्षक वाली पहलें भी भ्रष्टाचार और कागज़ी कार्यों की भेंट चढ़ गईं।

  • आधारभूत संरचना का अभाव: हाइड्रोपोनिक, संरक्षित खेती और टिशु कल्चर जैसी उन्नत तकनीकें अपनाने के लिए आवश्यक प्रशिक्षण, बीज ग्राम और संरक्षित खेती की संरचनाएँ सीमित रहीं।

पिरूल नीति: एक अव्यवस्थित प्रयास

पिरूल (चीड़ की पत्तियाँ) को रोजगार और ऊर्जा का स्रोत बनाने की योजना भी शुरू में काफी शोरगुल के साथ शुरू हुई थी।

  • अल्पकालिक आवंटन: 'पिरूल लाओ, पैसा पाओ' जैसे नारे केवल तब तक गूंजते रहे जब तक योजनाओं में धनराशि आवंटित होती रही। योजना बंद होते ही खरीदी गई मशीनें सड़कों के किनारे या कमरों में जंग खाते हुए अवशेष मात्र रह गईं।

  • ईमानदारी की कमी: पिरूल को ऊर्जा या जैविक खाद में बदलने की तकनीकी व्यवहार्यता और दीर्घकालिक बाज़ार सुनिश्चित करने में ईमानदारी और दृढ़ इच्छाशक्ति की कमी रही।

पलायन और भ्रष्टाचार: विकास की राह में रोड़ा

ग्रामीण विकास योजनाओं पर हजारों करोड़ों रुपए का बजट हर वर्ष खर्च किया जा रहा है, जिसमें जिला योजना, राज्य सेक्टर की योजना और केंद्र पोषित योजनाएँ शामिल हैं। इसके बावजूद, राज्य के 16,793 गाँवों में से तीन हजार से अधिक पूरी तरह खाली हो चुके हैं, और ढाई लाख से अधिक घरों में ताले लटके हैं। यह इंगित करता है कि योजनाएँ आम जन के लिए नहीं, बल्कि अन्य हितधारकों के लिए काम कर रही हैं।

  • मूलभूत सुविधाओं का अभाव: जंगली जानवरों से फसलों की सुरक्षा के कारगर उपाय न होना और बुनियादी सुविधाओं का अभाव पलायन के मुख्य कारण हैं।

  • संगठित भ्रष्टाचार: योजनाओं की कार्ययोजना में जानबूझकर उन्हीं मदों में अधिक धनराशि रखी जाती है, जहाँ आसानी से संगठित/संस्थागत भ्रष्टाचार किया जा सके। जैट्रोफा बायो फ्यूल घोटाला, ढैंचा बीज घोटाला और पॉली हाउस घोटाला जैसे चर्चित मामले भ्रष्टाचार की व्यापकता को दर्शाते हैं।

  • जवाबदेही का शून्य: शिकायत तंत्र निष्क्रिय है। शिकायतें अक्सर शिकायत करने वाले के शपथपत्र के साथ, उसी को जाँच हेतु भेज दी जाती है जिसकी शिकायत की गई है। उच्च स्तर पर योजनाओं का मूल्यांकन केवल बजट आवंटन और खर्च के आधार पर होता है, धरातलीय प्रभाव पर नहीं।

 किसानों का हित: समाधान और मार्ग

किसानों का वास्तविक हित तभी सुनिश्चित हो सकता है जब योजनाओं में राज्य की विषम भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार ईमानदारी से सुधार कर पारदर्शी ढंग से क्रियान्वयन किया जाए।

  1. उत्तराखंड केंद्रित योजना मॉडल: उत्तर प्रदेश की तरह चली आ रही पुरानी योजनाओं को दोहराने के बजाय, राज्य की भौगोलिक स्थिति और पारंपरिक ज्ञान के आधार पर नई योजनाएँ बनानी होंगी।

  2. जवाबदेही और पारदर्शिता: एक सक्षम और ईमानदार सिस्टम की स्थापना ज़रूरी है जो योजनाओं का ईमानदारी से मूल्यांकन करे। भ्रष्टाचार पर प्रभावी दंडात्मक कार्यवाही होनी चाहिए ताकि राजनेता, नौकरशाह, सप्लायरों (दलालों) और गैर सरकारी संगठनों का गठजोड़ टूट सके।

  3. बाज़ार से जुड़ाव: किसानों को सब्सिडी पर निम्न स्तर का सामान देने की नीति को बदलकर, उन्हें बाज़ार से सीधा जोड़ने और उत्पादों के लिए उचित मूल्य सुनिश्चित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। फूड प्रोसेसिंग यूनिटों की स्थापना और एग्रीविजनैस ग्रोथ सेन्टरों को ज़मीनी स्तर पर क्रियान्वित करना होगा।

  4. सतत और निरंतर विकास: 'जैविक खेती' या 'पिरूल नीति' जैसे विजनरी प्रोजेक्ट्स को सतत विकास (Sustainable Development) के सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए, न कि केवल आंवटित बजट खर्च करने पर। पुरानी योजनाओं का इतिहास जानने की कोशिश करनी चाहिए कि उनसे पहले अपेक्षित लाभ क्यों नहीं मिला।

वर्तमान 'भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस' कहने वाली सरकार को अब ईमानदारी से मूल्यांकन कर योजनाओं में सुधार लाना होगा। वरना, राज्यवासी विकास के लिए फिर से पाँच साल बाद नई सरकार—इसी मृगतृष्णा में जीते रहेंगे, और रजत जयंती वर्ष केवल एक उत्सव बनकर रह जाएगा।

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