कविवर चंद्रकुंवर बर्त्वाल के जन्म दिवस पर विशेष

कविवर चंद्रकुंवर बर्त्वाल जी के 106वें जन्मदिन पर विशेष,
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कलश संस्था के कवि सम्मेलन में प्रकृति के चितेरे कवि को किया गया याद।

लक्ष्मी नारायण मंदिर तिलवाडा में हुआ कवि सम्मेलन का आयोजन।


पंवालिया के संरक्षण की फुर्सत किसे है? यह गम्भीर सवाल हमेशा बना रहा पर नियन्ताओं की अनदेखी से खण्डर में तब्दील हो रही धरोहर का आखिर कब होगा सरंक्षण।

जनपद रुद्रप्रयाग के तिलवाडा कस्बे में आयोजित कवि सम्मेलन जिसके संयोजक पाड़ी भुला ग्रुप तिलवाडा द्वारा लक्ष्मीनारायण मन्दिर में कलश संस्था जिसने लोक भाषा को समृद्ध बनाने का सराहनीय बीड़ा उठाया है के द्वारा आयोजित किया गया जिसमें अपनी कविताओं के माध्यम से  श्री ओमप्रकाश सेमवाल, श्री जगदम्बा चमोला, श्रीमती कुसुम भट्ट, श्री अरुण चमोला, श्री शैलेन्द्र  सिंह आदि के द्वारा कविता पाठ कर स्व0 चंद्रकुंवर बर्त्वाल को याद किया।

 कविवर चंद्रकुंवर बर्त्वाल की सुंदर काव्य रचना समूचे पहाड़ का गौरव है। हिमालय की घाटियों और शिखर के सौंदर्य को प्रत्येक अक्श से आँकने वाले प्रेम, करुणा और प्रकृति के गायक बर्त्वाल मात्र 28 वर्ष की अल्पायु में कब हिंदी साहित्य में आए और कब चले गये, इसका किसी को पता भी नहीं चला। अपने जीवन के सुखद व दु:खद अल्प कवि जीवन में इन्होंने 700 के करीब कविताएं लिखी हैं और शुद्ध मुक्तक के आनंद की दृष्टि से कितनी ही कविताएं इतनी सुंदर है कि वह समूचे हिंदी संसार की धरोहर कहलाने का गौरव रखती हैं।


रुद्रप्रयाग जनपद के तल्ला नागपुर पट्टी के मालकोटी गांव में श्री भूपाल सिंह बर्त्वाल के घर में 20 अगस्त 1919 को चंद्रकुंवर बर्त्वाल का जन्म हुआ था। हिमालय के आँचल की छाया में पला-बढ़ा कवि अपने परिवेश के प्रति सर्वाधिक जागरूक था। यही कारण है कि यहां के प्राकृतिक सौंदर्य से लेकर गांव के जीवन, अंधविश्वास, पाखंड और धार-गाड तक की अभिव्यक्ति उनके काव्य में समान रूप से हुई है। यदि इस स्थिति से कहा जाए कि चंद्र कुंवर बर्त्वाल पहाड़ के प्रतिनिधि कवि हैं तो अनुचित न होगा।

चंद्रकुंवर की कविताओं में मुखयत: पर्वतीय वातावरण के सौंदर्य की  कल्पना है जो मूर्त रूप में है-

 नीला देवदारू का वन है।

 छाया देख अकेली तल पर,

 हिले तरुवर करते मर्मर।

हिमगिरी में निनाद फैला है।

 खुरच रही हिरणियां बदन है,

नीला‌ देवदारू का वन है।।

स्व. बर्त्वाल ने अधिक जीवन न जिया हो, किंतु लंबी असाध्याय बीमारी और अनेक कठिनाइयों के बावजूद जीवन के अंतिम क्षणों तक उत्तराखंड के इस सरस्वती पुत्र ने हिंदी साहित्य की  साधना निष्ठापूर्वक की। 

 प्रकाशित रचनाएं हैं-  पयस्विनी (350 कविताओं का संग्रह), मेघनंदिनी (गीति काव्य), जीतू (100 कविताओं का संग्रह), कंकड़ पत्थर (70 कविताओं का संग्रह), गीत माधवी (160 लघु गीतों का संग्रह) प्राणयिनी (तीन एकांकी), विराट ज्योति (34 कविताओं का संग्रह),  नागिनी (गद्य कृति, कहानी और निबंधों का संग्रह) जो धरोहर है हमारे लिए नित नई ऊर्जा के संचार का स्रोत है को आत्मसात करके जीवन के उद्देश्य को समझें जिसमें प्रकृति का दिया उपहार जब शब्दों से अलंकृत होता है तो सजीवता का दृश्य बनता जो आत्मावलोकन ओर आत्ममुग्धता में भेद स्पष्ट करता है।

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