भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का काला दिन एक ही वाक्य था 'भाइयो और बहनो, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है"।
लोकतंत्र के इतिहास का काला दिन एक ही वाक्य था 'भाइयो और बहनो, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है' इस घोषणा के बाद की कहानी और हकीकत से बाक़िफ़ तत्कालीन समय के लोगों द्वारा बताया गया जो तानाशाही और दूसरी बार भारत का गुलाम होना जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। कैसे इंदिरा गांधी ने लगाई थी इमरजेंसी?
25 जून का दिन भारत के इतिहास में ब्लेक डे या काला दिवस के रूप में जाना जाता है। देश में 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक 21 महीने की अवधि के लिए आपातकाल लागू किया गया था। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार की सिफारिश पर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत देश में आपातकाल की घोषणा की थी। यह घोषणा भारत के लिए दूसरी बार गुलामी की याद दिला गया।
25 जून 1975 का दिन भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण दिन था जब लगभग साढ़े चार दशक पहले आज के ही दिन रेडियो पर देश के लोगों ने एक ऐलान सुना जो कि सम्पूर्ण मुल्क में खबर फैल गई। आज देखें तो वर्षों बाद भले ही देश के लोकतंत्र की गरिमामयी तस्वीर दुनिया को दिखाई देती है। जैसे अभी 3 दिन पहले अमेरिका की संसद में भारत के प्रधानमंत्री मोदी जी ने अमेरिकी संसद को सम्बोधित करते हुए कहा कि भारत लोकतंत्र की जननी है और अमेरिका मजबूत लोकतंत्र वाला राष्ट्र है। भारत में वर्तमान में लोकतंत्र की स्थति कितनी मजबूत है यह सभी जानते हैं। एक काला अध्याय जो कि आज भी अतीत में 25 जून का दिन लोकतंत्र के काले अध्याय के रूप में ही दर्ज है। इस काले अध्याय पर कोई भी कांग्रेसी राजनीतिज्ञ सीधा जबाब नहीं देता है क्योंकि यह भूल अपने आप को सम्राट बनाये रखने के लिए गयी थी जिसकी जितनी भी निंदा की जाए शब्द कम पड़ेंगे।
देश में 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक 21 महीने आपातकाल लागू रहा।तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार की सिफारिश पर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के अधीन देश में आपातकाल की घोषणा की थी। यह आपातकाल की घोषणा 25 जून और 26 जून की दरमियानी रात में तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के हस्ताक्षर करने के साथ ही देशभर में आपातकाल लागू हो गया था। 26 जून की सुबह पूरे देश ने इंदिरा की आवाज में रेडियो पर संदेश सुना था। इंदिरा गांधी के शब्द थे -"भाइयो और बहनो, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है।"
अब सवाल उठता है की देश को आपातकाल में क्यों झोंका गया था इसका सीधा उत्तर है चक्रवत्री सम्राट बने रहने की लालसा और में हूँ मेरे अलावा कोई नहीं की चाह ने देश को इस आपातकाल से जूझने के लिए मजबूर किया गया था।
आखिर क्यों थोपी गई इमरजेंसी?
देश के जवान और किसान के नायक लालबहादुर शास्त्री के निधन के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बनी थी जिनका न्यायपालिका से अपने अहम् के चलते टकराव शुरू हो गया और यही टकराव आपातकाल की पृष्ठभूमि बना। 27 फरवरी, 1967 को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने आपातकाल के लिए बड़ी पृष्ठभूमि की भूमिका तैयार की थी। एक मामले में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस सुब्बाराव के नेतृत्व वाली एक खंडपीठ ने सात बनाम छह जजों के बहुमत से फैसला सुनाया था। फैसले में कहा गया था कि संसद में दो तिहाई बहुमत के साथ भी किसी संविधान संशोधन के जरिये मूलभूत अधिकारों के प्रावधान को न तो खत्म किया जा सकता है और न ही इन्हें सीमित किया जा सकता है। बस यही फैसला भारत में आपातकाल को लाने के लिए भूमिका बना गया और अदालती फैसले को अपने खिलाफ होता देख लोकतंत्र और संविधान की जिस तरह से आधी रात को धज्जियां उड़ाकर अपमानित किया गया था यह देखने को मिला और न दिखना चाहिए।
आखिर क्या वजह थी -
1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में पार्टी को अभूतपूर्व जीत चुनाव में मिली थी। इंदिरा गांधी स्वयं भी बड़े अंतर से इस चुनाव में जीती थीं। इंदिरा गांधी की जीत पर सवाल उठाते हुए उनके चुनावी प्रतिद्वंद्वी राजनारायण ने 1971 में अदालत का दरवाजा खटखटाया और राजनारायण जो कि संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर इंदिरा गांधी के सामने रायबरेली लोकसभा सीट पर चुनाव लड़े थे ने अपनी याचिका में आरोप लगाया था कि इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल किया है। मामले की सुनवाई हुई और इंदिरा गांधी के चुनाव को निरस्त कर दिया गया। इस फैसले से आक्रोशित होकर ही इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाने का फैसला किया। इस निर्णय की आजतक समीक्षा हो रही है पर भारत जैसा विशाल हृदय लिए यहां की जनता ने यह कुत्सित मानसिकता वाले तानाशाही फरमान को स्वीकार किया क्योंकि सत्ता का उस समय किस तरह इक़बाल था जब प्रेस स्वतन्त्रता को छीन लिया गया, विपक्षी नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया और जो चाहा किया उत्पीड़न के इस दौर ने दुबारा गुलामी की याद भारत की ताजा कर दी।



