नेता खाएं मुफ्त में तो जनता कबतक चुकाए।
अभी कुछ दिन पहले प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने एक मुद्दा उठाया था की जो मुफ्त की रेवड़ियाँ बाटने की परम्परा है यह देश के विकास और देश के लिए किसी भी तरह से उचित नहीं है। विशेष रूप से राजनीतिक दल चुनाव को देखते हुए मुफ्त की रेवड़ियां बाँट रहें है, इससे देश का विकास अवरुद्ध हो रहा है और उस राज्य की अर्थव्यवस्था डावांडोल हो रही है अतः देश को इस रास्ते से हटना चाहिए।
यह मुफ्त की रेवड़ियां चुनाव के समय बाँटने का मामला जनहित याचिका के रूप में सर्वोच्च अदालत गया जब इस मामले पर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई करनी शुरू की और चुनाव आयोग का पक्ष जानना चाहा तो चुनाव आयोग ने इस मुफ्त की रेवड़ियां बांटने के मामले से हाथ खड़े कर दिए और अदालत से कहा की हमारा इस मामले से कोई लेना देना है ही नहीं हमारे पास इस तरह अधिकार भी नहीं हैं कि कोई कार्यवाही कर सकें। इसके बाद अदालत ने केंद्र सरकार से कहा कि जब अगली बार इस मामले के लिए कोर्ट आएं तो मुफ्त रेवड़ियां बाँटना बंद कैसे हो पर अपना जबाब दाखिल करें ।
अब यहां पर सवाल उठ रहा है कि मुफ्त की रेवड़ियां क्या हैं - आपने चुनाव के समय पर देखा होगा की नेता कहतें हैं हमारी सरकार आएगी तो मुफ्त में बिजली, पानी देंगे कोई कहता है सायकिल देंगे कोई कहता है स्कूटी देंगे कोई कहता है मुफ्त राशन देंगे कोई टेलीविजन देंगे , कोई कहता मंगलसूत्र देंगे आदि तमाम घोषणाएं जब चुनाव के समय पर राजनैतिक दल करते हैं तो इसे मुफ्त की रेवड़ियां बाँटना कहते हैं।
अब फिर यहां पर बात आती है कि किसी भी एक राजनीतिकदल का नाम बताओ जो चुनाव के समय मुफ्त की रेवड़ियां न बांटता हो चाहे व सबसे बड़ी पार्टी भाजपा हो या सबसे छोटा दल हो सब लगभग अपने स्वादानुसार मुफ्त की रेवड़ियां बांटने का काम करती हैं। कोई दल यह बता दे कि इन मुफ्त की रेवड़ियों को बाँटने के लिए बजट कैसे तैयार होगा आपका क्या प्लान होगा की मुफ्त की रेवड़ियां बांटने में आप टेक्स देने वालों का पैसा खर्च नहीं करेंगे। कर्ज माफ़ी से लेकर मोबाईल टेबलेट और इनमें खर्च होने वाला डाटा तक मुफ्त में देने की बात होती है तो स्पष्ट है सब एक ही घाट का पानी पी कर रेवड़ियां बांटते हैं।
अब समस्या यह हो गयी की जब सब राजनैतिक पार्टियां इस तरह से रेवड़ियां चुनाव जितने के लिए बाँट रही है तो इन रेवड़ियों को बांटना बंद कैसे किया जाए के लिए नियम कानून कौन बनाएगा। अब दूसरा मुद्दा है कि गरीब और बंचितों के लिए जो कल्याणकारी योजनाएं केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा चलाई जाती हैं उन्हें भी रेवड़ियों की श्रेणी में रखा जा सकता है या नहीं। यदि इस सवाल का जबाब मिलता इस सवाल भारत की राजनीति और समाजनीति तय होगी जो भारत के भविष्य तय करेगा की कल्याणकारी योजनाओं को रेवड़ियों के दायरे में रखा जाए या नहीं इसका प्रभाव बृहद रूप से होगा जिसका असर आम जनजीवन पर पड़ेगा।
कल्याणकारी योजना की बात करें तो अभी हाल में ही केंद्र द्वारा कोरोना काल में 80 करोड़ लोगों को मुफ्त का राशन दिया गया जिसकी अवधि कोरोनाकाल में 6 माह के लिए विस्तारित की गयी थी। अब इसे कोई भी मुफ्त की रेवड़ी नहीं कह सकता यदि कहेंगे तो जबाब है क्या विश्वव्यापी संकट में लोगों को भूख से मरने के लिए छोड़ दिया जाए। असमंजस वाली स्थिति ऐसी कल्याणकारी योजनाओं में देखने को मिलेगी की ऐसी योजनाओं को किस श्रेणी में रखा जाए।
किसान सम्मान निधि किसानों को दी जाने वाली सहायता हो या वृद्ध, दिव्यांग, विधवा पेंशन इन पर भी फैसला होना चाहिए की ये क्या हैं यदि रेवड़ियां हैं तो क्यों न इनको तत्काल प्रभाव से बंद किया जाए और रेवड़ियां नहीं हैं तो योजनाएं क्यों दी जा रही हैं।
कल्याणकारी योजनाओं के विरोध में सब बात कर रहें हैं पर जो नेता मुफ्त का माल खा रहें हैं इसकी कहीं चर्चा ही नहीं हो रही है। मुफ्त की गंगा में आकण्ठ डूबकर मजे ले रहें हैं उन माननीयों पर कोई सवाल क्यों नहीं उठ रहा है।
यह मुद्दा उठना चाहिए कि जन सेवा नाम पर इतनी सहूलतें कैसे मिल रहीं हैं जबकि कामगार को पेंशन सुविधा बंद हो गयी हो और माननीयों की निर्बाध रूप से एक दो तीन चार पेंशन चल रहीं हों क्या जनसेवा भी धन कमाने का साधन बन गया है। जिनके घर में टीन के पत्ते की छत थी आज विदेशी मार्बल डालकर, विदेशी पर्दों से उनके सिंह द्वार सजे हैं क्या इसपर चर्चा नहीं होनी चाहिए। इस खबर पर अपनी राय जरूर रखें।