24 वर्ष की जवानी में हांफ रही सांस या विकास के धुएं से कुछ नही दिख रहा

उत्तराखंड राज्य का संघर्ष एक नजर में- ब्रिटिश राज मे पहली बार उत्तराखंड अलग राज्य की मांग,
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 24 वर्ष की जवानी में हांफ रही सांस या विकास के धुएं से कुछ नही दिख रहा।

पहाड़ी राज्य का सपना कितना सार्थक हुआ पढ़िए विशेष रिपोर्ट-

उत्तराखंड राज्य का संघर्ष एक नजर में-  ब्रिटिश राज मे पहली बार उत्तराखंड अलग राज्य की मांग।

सुनने में हैरानी हो सकती है, लेकिन उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने की मांग सबसे पहले 1897 में ब्रिटिश हकूमत के दौर में उठी थी। उस समय पहाड़ी लोगों ने तत्कालीन महारानी से एक अलग राज्य की जरूरत का जिक्र किया, लेकिन उस पर ध्यान नहीं दिया गया।  इसके बाद, 1923 में भी संयुक्त प्रांत के राज्यपाल के सामने फिर से मांग रखी गई, और 1938 में श्रीनगर गढ़वाल में कांग्रेस अधिवेशन के दौरान पंडित नेहरू ने इस मांग का समर्थन भी किया था फिर भी, एक अलग राज्य का सपना अधूरा रह गया। जो आगे जाकर जनभावनाओ का सशक्त आंदोलन बना और इस उत्तराखंड राज्य की मांग के आंदोलन ने अपार जन समर्थन पाया उसका जिक्र हर उत्तराखंडी की जुबान से बरबस निकलता है।

90 के दशक में उत्तराखंड की मांग को लेकर तेज हुआ आंदोलन- 

आजादी के बाद भी उत्तराखंड की जनता के लिए संघर्ष जारी रहा। 1950 में संयुक्त प्रांत का नाम बदलकर उत्तर प्रदेश कर दिया गया, लेकिन उत्तर प्रदेश का भौगोलिक क्षेत्र विशाल होने के चलते सरकार हिमालयी क्षेत्र की विशेष जरूरतों को नहीं समझ सकी।  उत्तरप्रदेश में रहकर खुद को ठगा महसूस करने के चलते पहाड़ी लोगों ने एक बार फिर से एक अलग राज्य की मांग उठाई और उत्तराखंड क्रांति दल का गठन हुआ। 90 के दशक में आंदोलन तेज हुआ और 1994 में हालात इतने खराब हो गए कि आंदोलन हिंसक हो गया। कई शहीद हुए जिसमें रामपुर तिराहा काण्ड सबसे ज्यादा विभत्स ओर पहाड़ियों के लिए अभिशाप जैसे  बना यह आग फैलते फैलते इतनी विकराल हुई कि अलग राज्य उत्तराखण्ड का गठन की मंजूरी मिली।

अलग राज्य बने 24 वर्ष हो गए जो कि विकास के नाम पर थे या स्वयं के विकास के नाम पर यह देखना है तो कल तक जो टिन की झोपड़ी में थे आज महलों में है से स्पष्ट होता है। तत्कालीन उत्तरप्रदेश में रहते हुए पहाड़ो से पलायन ना के बराबर था आज गावँ में बूढ़े लोग ही है बाकी बहुत से गावँ जन शून्य हो चुके हैं। यहां तक कि सरकार को पलायन आयोग बनाना पड़ा और वह आयोग खुद ही पलायन कर गया।

आज स्थिति ये है कि कई प्राथमिक विद्यालय बन्द हो चुके हैं और कई बंदी की कगार पर खड़े हैं क्योंकि विकास कागज में था हकीकत गावँ में थी और गावँ खाली हो गया विकास कागजों में था जो फाइल में दब गया।

गावँ में जो है भी वह जंगली जानवरों से परेसान हैं कई लोग मानव वन्य जीव संघर्ष मे घायल होने  के बाद सम्बंधित विभाग कोई ठोस कदम मानव की सुरक्षा हेतु नही उठाया गए कितनी महिलाएं या बच्चों को गुलदार के हमले  से घायल होते जा रहे हैं। पहाड़ की खेती का रकबा बंजर होते जा रहा क्यो।

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