केदारनाथ विधानसभा उप चुनाव में राजनैतिक पार्टियों के लिए मुश्किलों का दौर हो चूका है शुरू।
अभीतक लगभग बढ़त में थे जो कि चुनाव नजदीक आते आते सुरूर कम होता जा रहा है क्या हैं इसके कारण।
एक तरफ उपनल कर्मचारियों के हित में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद सरकार का दुबारा रिव्यू पिटीशन डालना कहीं न कहीं संघर्ष करके जीत के मुहाने पर पहुंचने के बाद भी आसमान की तरफ ताकने को मजबूर 22000 कर्मचारियों का मामला केदारनाथ विधानसभा उपचुनाव पर असर कर रहा है।
स्थानीय मुद्दों को चुनावों में जिस तरह से उठाया जा रहा है उस हिसाब से भाजपा का बैकफुट पर जाना कहीं न कहीं इस चुनाव में प्रतिकूल प्रभाव भाजपा के लिए साबित होगा। हम विकास बातें करें पर आम मतदाता की समझ में विकास क्या है जबतक हम ये नहीं समझेंगे तो चुनावों में इस तरह की स्थितियों से सामना करना ही पड़ेगा।
पहले राजनीति के जानकार लोग टिकट बंटवारे के बाद भितरघात और प्रत्याशी के विपक्ष में चुनाव लड़ने जैसे बातों को हवा दे रहे थे जो कि भाजपा के मजबूत संगठन के द्वारा स्थिति को संभाले रखा और ऐसी एक भी बात सामने नहीं जो कि भाजपा में कोई अंदुरुनी लड़ाई की रही हो यह एक अच्छे संगठन का परिचायक भी है।
भाजपा के लिए अभी भी मौका है कि जनहित के मुद्दों जैसे केदारनाथ यात्रा में स्पष्ट रोजगार नीति, केंद्र की योजनाओं के साथ राज्य की भी कुछ ऐसी योजनाओं का संचालन जिससे की हर आदमी जुड़े। सड़क, अस्पताल, पेयजल, शिक्षा के लिए लोग आजादी से अभीतक मांग कर रहें हैं जो कि अनवरत जारी रहेगी, सैनिक स्कुल का मुद्दा अभी तूल पकड़ रहा है ऐसी स्थिति क्यों बन रही हैं। कोई मेडिकल कॉलेज या अच्छे इंस्टिट्यूट खोले जाए जिससे यहां बाहर के लोग पढ़ने आएं इससे रोजगार बढ़ेगा और स्थानियों को लाभ मिलेगा ऐसी कोई निति बनानी आवश्यक हैं जिससे आमजन का विश्वास बढ़ेगा नहीं तो जिस गति से भाजपा बढ़ी है उससे ज्यादा गति से भाजपा से लोगों का मोह भंग होना शुरू हो गया है।
वही दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी द्वारा चुनाव में डिफेन्स जैसे खेलना कहीं न कहीं कमजोर रणनीति की तरफ इशारा करती है जन भावनाओं के ज्वार की आवाज़ विपक्ष होता है जो कि आरोप प्रत्यारोप तक ही सीमित रह गयी है। कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशी अन्य प्रत्याशियों से अच्छे मुद्दे उठा रहें हैं पर मतदाताओं में एक धारणा बनी है कि मुद्दे उठाये ही गए उन मुद्दों पर कोई प्रदर्शन धरना जैसे कभी कुछ हुआ नहीं जिससे की सरकारों पर दबाब बनता।
वही निर्दलीय प्रत्याशी त्रिभुवन सिंह चौहान के द्वारा जिस तरह से राजनीति के अखाड़े में उतरकर जनहित के मुद्दों को उठाकर आमजन की भावनाओ तक पहुंच बनाई है वह अच्छा प्रयास है। राजनीति की समझ जनता के मुद्दों पहचानकर उनको समाधान कैसे किया जा सकता है और एक ठोस रोड मेप को जनता को दिखाना जो कि राजनीति की भाषा में कहें तो सपने दिखाकर उनको साकार कैसे किया जा सकता पर आमजन के बीच में अपनी बात रखना कहीं कहीं मतदाताओं को अपने पक्ष में ठोस रणनीति है।
उत्तराखंड क्रांति दल की आपसी फूट और बिना किसी ठोस रणनीति के चुनाव में उतरने से चुनाव निशान तक गवां चुकी यूकेडी 1988 में श्री इंद्रमणि बडोनी जी ने उत्तराखंड क्रांति दल के बैनर तले 105 दिनों की पदयात्रा की। यह पदयात्रा पिथौरागढ़ के तवाघाट से देहरादून तक चली। उन्होंने गांव में घर-घर जाकर लोगों को अलग राज्य के फायदे बताए। 1992 में उन्होंने बागेश्वर में मकर संक्रांति के दिन गैरसैंण को उत्तराखंड की राजधानी घोषित किया जो कि आमजन के मन में अपना मुद्दा है और इसके लिए लड़ना है की भावना को जागृत कर उत्तराखंड क्रांति दल को मजबूत क्षेत्रीय दल बनाया था जो आपसी फुट के चलते 2022 में हुए चुनाव में 01 फीसदी ही वोट पाने के चलते अपना चुनाव निशान कुर्सी को ही गवां बैठा।
यूकेडी जैसे क्षेत्रीय पार्टियों का मजबूत न होना और लोगो का विश्वास इस दल से उठने का कारण स्पष्ट रूप से सत्ता की लोलुप्त्ता रही है जिसने यूकेडी को इस हाल में पहुंचाया अभी भी समय है जिनसे गलतियां हुई हैं वो आमजन के बीच जाकर अपनी गलती स्वीकार करें और यूकेडी से हटकर इस जनभावनाओं वाले दल को मजबूत बनाने में अपनी भूल को सुधार करके अपना योगदान दें।