सोफे पर सत्ता और प्लास्टिक की कुर्सी पर बलिदान।
'सम्मान' की घोषणा और 'अपमान' की हकीकत: उत्तराखंड के रजत उत्सव में भटकाव की दिशा!
अगस्त्यमुनि: हिमालय की गोद में बसे 'देवभूमि' उत्तराखंड को अपने अस्तित्व के 25 गौरवशाली वर्ष पूरे करने पर जहाँ 'रजत उत्सव' मनाना था, वहीं यह अवसर सत्ता की चमक-दमक और संस्थापकों के प्रति संवेदनहीनता के एक कड़वे विरोधाभास में सिमट कर रह गया है। एक तरफ, मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने राज्य आंदोलनकारियों के लिए पेंशन में 'भारी वृद्धि' और सरकारी नौकरियों में 10% क्षैतिज आरक्षण जैसी लुभावनी 'राहतों' की घोषणा कर उन्हें राज्य के सम्मान का प्रतीक बताया, तो दूसरी तरफ, जमीनी कार्यक्रमों में जिस तरह से इन त्यागियों को अपमानित किया गया, उसने सम्मान के इस सरकारी दावे की पोल खोलकर रख दी है।
घोषणाओं की गूंज बनाम व्यवस्था का सन्नाटा
मुख्यमंत्री धामी ने बेशक आंदोलनकारियों की दशकों तक इजाफे वाली पेंशन की घोषणा कर एक राजनीतिक संदेश देने की कोशिश की है। ये घोषणाएं निश्चित तौर पर उन संघर्षशील चेहरों के लिए एक आर्थिक संबल हैं, जिन्होंने नए राज्य के सपने को साकार करने के लिए अपने जीवन का बलिदान दिया। लेकिन, जब बात 'सम्मान' की आती है, तो रुद्रप्रयाग के अगस्त्यमुनी क्रीड़ा मैदान की घटना, इस पूरी कवायद को एक खोखले दिखावे में बदल देती है।
सोफे पर सत्ता और प्लास्टिक की कुर्सी पर बलिदान
तस्वीरें सब कुछ बयां करती हैं। उत्तराखंड राज्य के लिए गोलियां खाई, लाठियां सहीं और जेल काटी—ऐसे अनुभवी, बुजुर्ग आंदोलनकारियों को मंच से दूर, पीछे की कतारों में प्लास्टिक की सख्त कुर्सियों पर बैठाया गया। इसके विपरीत, सत्ता के गलियारों में बैठे छोटे-बड़े नेताओं, उनके सहयोगियों और दरबारीगणों के लिए मंच के समीप, सोफे और कुशन वाली VIP कुर्सियाँ आरक्षित थीं।
यह भौतिक अंतर केवल बैठने की व्यवस्था का नहीं, बल्कि यह प्राथमिकता और सम्मान के गहरे अंतर को दर्शाता है। जिस राज्य की बुनियाद इन बलिदानियों के रक्त और पसीने पर टिकी है, उन्हें एक सार्वजनिक समारोह में दोयम दर्जे का नागरिक महसूस कराना, सत्ता की संवेदनहीनता का चरम है।
कलम से निष्कर्ष: "यह केवल अपमान नहीं, बल्कि एक गहरी नैतिक चूक है। जब राज्य अपने संस्थापकों के साथ 'कुर्सी के अंतर' से बर्ताव करने लगे, तो यह स्पष्ट संकेत है कि सत्ता की चमक-दमक में उत्तराखंड अपने मूल और संस्थापकों के बलिदान को भूलकर भटकाव की दिशा में जा रहा है।"
एक मिनट की 'शॉल-ओढ़ाओ' खानापूर्ति
सम्मान के नाम पर आंदोलनकारियों के साथ किए गए व्यवहार ने इस आयोजन को एक भद्दा मज़ाक बना दिया। उन्हें 'भेड़-बकरियों की तरह' लाइन लगवाकर मात्र एक मिनट में शॉल ओढ़ाने की रस्म निभाई गई। न कोई विस्तृत प्रशस्ति पत्र, न कोई स्मृति चिह्न, न ही उनके संघर्षों का उल्लेख—करोड़ों रुपये फूंककर आयोजित किया गया यह 'उत्सव', अंततः 'अपमान की रजत जयंती' बनकर रह गया।
सवाल गंभीर है: क्या घोषणाओं का पुलिंदा केवल चुनावी बिसात का मोहरा है, और क्या 'देवभूमि' की सत्ता अब इतनी अहंकारी हो गई है कि वह उन महान बलिदानियों का सच्चा सम्मान भी नहीं कर सकती, जिनकी वजह से आज वह इस सिंहासन पर विराजमान है? उत्तराखंड को अपने मूल्य, अपनी पहचान और अपने संस्थापकों के प्रति ईमानदार होने की आवश्यकता है, अन्यथा यह 'रजत उत्सव' आने वाली पीढ़ियों के लिए गर्व नहीं, बल्कि एक दर्दनाक सबक बनकर रह जाएगा।


