आखिर उत्तराखण्ड में कब आएगा चारा विकास विभाग अस्तित्व में

उत्तराखण्ड चारा विकास विभाग, आखिर क्यों अस्तित्व में नही आ रहा,विश्व की 2 फीसदी भूमि पर 20 फीसदी आबादी के साथ विश्व के कुल पशुधन का 17 फीसदी भारत मे ह
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 जल जंगल जमीन की चाह में बना उत्तराखंड का अपना चारा विकास विभाग अस्तिस्त्व में नही।

उत्तराखंड को अलग पहाड़ी राज्य  का दर्जा दिलाने के लिए हुए शहीदों के सपने का उत्तराखंड क्या यही उत्तराखण्ड है जिसमें महिला कार्यबोझ को कम करना, अपना समृद्ध खुशहाल प्रदेश हो जिसके हर हाथ को काम मिले और जनभावनाओं में यह अहसास हो कि हर उत्तराखंडी का गर्व से हिमालय की तरह मस्तक खड़ा रहे।

यह बात पलायन की विभीषिका से जूझ रहै पहाड़ के खण्डर होते रिहायशी मकानों से स्पष्ट होती है कि पलायन की मार से पहाड़ में रहने वाले लोग आज अपनी जीवटता से मुँह मोड़ रहे हैं।

एक तरफ पलायन आयोग बना जो खुद पलायन कर गया दूसरी तरफ यदि पहाड़ की समस्या स्वास्थ्य, सड़क और शिक्षा व रोजगार पर नीतिनियन्ताओं ने कितना कार्य किया है यह खण्डर मकान ओर दरवाजों पर लटके ताले गवाह हैं।

विश्व की 2 फीसदी भूमि पर 20 फीसदी आबादी के साथ विश्व के कुल पशुधन का 17 फीसदी भारत मे है। इतना भारी भरकम संसाधनो के बाद पशुधन उत्पादों की उत्पादकता में कमी होना कुछ मूल कारणों की अनदेखी है।

वैज्ञानिकों के द्वारा कम उत्पादकता के मुख्य कारणों के कारकों  में 50 प्रतिशत चारा, 20 प्रतिशत आनुवंशिक सुधार, 20 प्रतिशत बीमारियां ओर 10 प्रतिशत प्रबन्धन को बताया गया है। यदि भारत से बाहर के आंकड़े देखे तो एक व्याहता में यूएस ओर इजराइल में 6500 लीटर दूध और भारत मे 918 लीटर का औसत है जबकि भारत में इन देशों की अपेक्षा पशुपालन कार्य मे शारीरिक मेहनत ज्यादा है।

पशु उत्पादों जैसे दूध, मांस एवम ऊन पर व्यय होने वाली राशि मे 70 प्रतिशत चारे की रकम है और उत्तराखण्ड की बात करें तो यहां पर चारे की कमी का मुख्य कारण   परम्परागत रूप से खेती होना जिसे अब जैविक खेती के नाम से जाना जा रहा है चिरन्तर होती आ रही है और जैविक खेती में 99.99 प्रतिशत गोबर की खाद का प्रयोग किया जाता है अब सवाल है कि उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में उत्पादन कम क्यों है तो इसका जबाब है भौगोलिक विषमता जबकि इसका मूल कारण गोबर की कमी और ढालदार खेत होना है।

उत्तराखण्ड राज्य में चारे की लगभग 30 प्रतिशत कमी है और चारे की व्यवस्था पहाड़ में महिलाओं के जिम्मे है प्रत्येक महीने कोई न कोई घटना चारा काटने गयी महिला पेड़ से गिरी, घास काटने गयी महिला चट्टान से गिरी, घास काटने गयी महिला पर भालू या बाघ का हमला नाम से खबरें आती हैं जबकि हम महिला कार्यबोझ को कम करने की दिशा में उज्ज्वला योजना ओर हर घर नल हर घर जल की योजना से अलावा अन्य कुछ दिखा नही जो महिलाओं के कार्यबोझ को कम करने में सहायक हो।


गढरत्न श्री नरेन्द्र सिंह नेगी जी ने पहाड़ की महिलाओं की पीड़ा को अपने कई गीतों में प्रस्तुत किया है 


"तेरी पीड़ा केल न जाणी है पहाड़ की नारी।

विन्सरी बिटी व्यख़ूनी तक करदी धाणी कमाणि।

खेरी विपदा तेरा भाग म सदानी।"


यह पंक्तियाँ पहाड़ की नारी शक्ति का सच हैं और चिरकाल से चली आ रही हैं जिसका समाधान न हुआ न होना इसके कारण कितना पलायन हुआ या बंजर पड़ते खेतों की तादात स्पष्ट बता रही है।

घास ओर लकड़ी को जुटाना पहाड़ की दिनचर्या में मुख्य कार्य माना जाता है जिसमे से उज्ज्वला योजना ने महिलाओं को लकड़ी की समस्या का समाधान दिया है पर चारे की समस्या और चारे की व्यवस्था में कई घरों का दुर्घटना के कारण बर्बाद होना यह पहाड़ के लिए चिंता का विषय है।

उत्तराखंड में चारा नीति 2022-2027 बनी पर जब चारा विकास विभाग ही अस्तित्व में नही है तो नीति का क्या हाल होना।

पूर्व में हरीश रावत सरकार में चारा एवम चारागाह विकास विभाग गठन की प्रक्रिया कुछ हद   तक आगे बढ़ी थी कहाँ तक बढी यह स्पष्ट नही है। क्या उत्तराखंड में एक अदद चारा विकास विभाग  बनना सम्भव नही है। जिस जल जँगल जमीन के लिए उत्तरांखड की लड़ाई लड़ी गयी थी वह लड़ाई कितनी सार्थक हुई पाठकों से अनुरोध की इस विषय पर अपनी राय जरूर रखें।

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